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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
होता है, अच्छा व्यवहार होता है, उसे मिटा देता है। जिनमें परस्पर मेलजोल नहीं होता, व्यवहार टूटा हुआ होता है, चुगलियों द्वारा उस टूटन को पक्का करता है। वह लोगों में फूट डालने में प्रसन्न होता है । वर्ग-भेद करने में हर्ष अनुभव करता है। यह सब करते रहने वह संलग्न रहता है । वैसा करने में उसे आनन्द आता है । वह ऐसी वाणी बोलता है, जिससे वर्ग-भेद या वैमनस्य को बढ़ावा मिले। यह दूसरे प्रकार का वाचिक अधर्माचरण है ।
तस्व
"कोई पुरुष भाषी – कठोर बोलने वाला होता है । वह ऐसी वाणी बोलता है, जो तीखी-- हृदय में चुभने वाली, कर्कश – कटु लगने वाली पीड़ा देनेवाली होती है, क्रोधाविष्ट होती है, अशान्ति उत्पन्न करती है । यह तीसरे प्रकार का वाचिक अधर्माचरण है ।
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"कोई पुरुष प्रलापी होता है - बेसमय बोलने वाला, फिजूल बोलने वाला, असत्यभाषण करने वाला अधर्म की बात कहने वाला, अविनीत भाषण करने वाला, निरुद्देश्य बोलने वाला, तात्पर्यहीन बात कहने वाला, निरर्थक एवं साररहित वाणी बोलने वाला होता है । गृहपतियो ! यह चौथे प्रकार का अधर्माचरण है ।
“गृहपतियो ! मानसिक अधर्माचरण तीन प्रकार का होता है— कोई पुरुष अभिध्यालु — लोभयुक्त होता है, दूसरे की सम्पत्ति तथा साधन आदि हथियाने में उसे लोभ होता है । वह सोचता है— दूसरे का यह घन, वैभव काश ! मेरे पास होता । यह पहले प्रकार का मानसिक अधर्माचरण है ।
"कोई पुरुष व्यापन्नचित्त - द्वेषपूर्ण संकल्पयुक्त होता है। वह सोचता है - ये प्राणी जी क्यों रहे हैं ? ये मारे जाएँ, इनका वध किया जाए, इनका उच्छोद हो जाए, नाश हो जाए । यह दूसरे प्रकार का मानसिक अधर्माचरण है।
जो मिथ्या दृष्टि - विपरीत धारणायुक्त, असत् आस्थायुक्त होता है । वह सोचता है— दान, यज्ञ, हवन आदि कुछ नहीं हैं, शुभ-अशुभ कर्मों का - पाप-पुण्य का कोई फल नहीं. होता, लोक का अस्तित्व नहीं है, परलोक का अस्तित्व नहीं है, माता-पिता का अस्तित्व नहीं है, औपपातिक – उपपातोत्पन्न — अयोनिप्रसूत प्राणी - देव नहीं हैं। लोक में सत्य पथ पर गतिशील, संलग्न, साधनाशील, सत्पथ पर पहुंचाने वाले, सही रास्ता दिखाने वाले ऐसे श्रमण-ब्राह्मण नहीं हैं, जिन्होंने इस लोक और परलोक को स्वयं जाना हो, उनका साक्षात्कार किया हो, बैसा कर औरों को समझाने में समर्थ हों । यह तीसरे प्रकार का मानसिक अधर्माचरण है ।
"गृहपतियो ! जो पुरुष इस प्रकार कायिक, वाचिक, मानसिक अधर्माचरण या विषम आचरण करता है, वह देह त्याग करने के पश्चात् नरकगामी होता है- नरक में उत्पन्न होता है ।
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"गृहपतियो ! जो कायिक धर्माचरण, वाचिक धर्माचरण तथा मानसिक धर्माचरण करता है, वह देह त्याग करने के पश्चात् सुगति में जाता है, स्वर्ग में उत्पन्न होता है । "कायिक धर्माचरण तीन प्रकार का है-"एक पुरुष प्राणातिपात - हिंसा से विरत होता है, दण्डत्यागी - दण्ड का त्याग करने वाला, शस्त्रत्यागी - शस्त्र का त्याग करने वाला होता है, लज्जालु —लज्जाशील, दयालु - दयावान् होता है, समान प्राणियों का
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