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________________ ७२६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ ऋजुजड़-सरल, किन्तु तात्पर्य नहीं समझने वाला। ऋनुप्राज-सरल और बुद्धिमान । संकेत मात्र से हार्द तक पहुंचने वाला। एक महोरात्र प्रतिमा-साधु द्वारा चौविहार षष्ठोपवास में ग्राम के बाहर प्रलम्बभुज होकर कायोत्सर्ग करना । एक रात्रि प्रतिमा- साधु द्वारा एक चौविहार अष्टम भक्त में जिनमुद्रा (दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अन्तर रखते हुए सम अवस्था में खड़े रहना), प्रलम्ब बाहु, अनिमिष नयन, एक पुद्गल निरुद्ध दृष्टि और झुके हुए बदन से एक रात तक ग्रामादि के बाहर कायोत्सर्ग करना। विशिष्ट संहनन, धृति, महासत्त्व से युक्त भावितात्मा गुरु द्वारा अनुज्ञात होकर ही इस प्रतिमा को स्वीकार कर सकता है। एक साटिका-बीच से बिना सिला हुआ पट (साटिका), जो बोलते समय यतना के लिए जैन-श्रावकों द्वारा प्रयुक्त होता था। एकादशांगी-देखें, द्वादशांगी। एकादशांगी में दृष्टिवाद सम्मिलित नहीं है। एकावली तप-विशेष आकार की कल्पना से किया जाने वाला एक प्रकार का तप । इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है। एक परिपाटी (क्रम) में १ वर्ष २ महीने और २ दिन का समय लगता है। चार परिपाटी होती हैं। कुल समय ४ वर्ष ८ महीने और ८ दिन का लगता है। पहली परिपाटी के पारणे में विकृति का वर्जन आवश्यक नहीं होता। दूसरी में विकृति-वर्जन, तीसरी में लेप-त्याग और चौथी में आयंबिल आवश्यक होता है। औहशिक-परिव्राजक, श्रमण, निग्रन्थ आदि सभी को दान देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन, वस्त्र अथवा मकान। औत्पातिकी बुद्धि-अदृष्ट, अश्रुत व अनालोचित ही पदार्थों को सहसा ग्रहण कर कार्यरूप में परिणत करने वाली बुद्धि । कनकावली तप-स्वर्ण-मणियों के भूषण विशेष के आकार की कल्पना से किया जाने वाला तप। इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है। एक परिपाटी (क्रम) में १ वर्ष ५ महीने और १२ दिन लगते हैं। पहली परिपाटी में पारणे में विकृति-वर्जन आवश्यक नहीं है। दूसरी में विकृति का त्याग, तीसरी में लेप का त्याग और चौथे में आयंबिल किया जाता है। करण-कृत, कारित और अनुमोदन रूप योग-व्यापार । कर्म- आत्मा की सत् एवं असत् प्रवृत्तियों के द्वारा आकृष्ट एवं कर्म रूप में परिणत होने वाले पुद्गल विशेष । कल्प-विधि, आचार । कल्प वृक्ष-वे वृक्ष, जिनके द्वारा भूख-प्यास का शमन, मकान व पात्र की पूर्ति, प्रकाश व अग्नि के अभाव की पूर्ति, मनोरंजन व आमोद-प्रमोद के साधनों की उपलब्धि सहज होती है। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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