________________
तत्त्व : आचार : कथानुयोग] परिशिष्ट-१ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोष ७२५ आयंविल वर्द्धमान तप-जिस तप में रंधा हुआ या भुना हुआ अन्न पानी में भिगो कर केवल
एक बार ही खाया जाता है, उसे आयंबिल कहते हैं। इस तप को क्रमश: बढ़ाते जाना। एक आयंबिल के बाद एक उपवास, दो आयबिल के बाद उपवास, तीन आयंबिल के बाद उपवास, इस प्रकार क्रमशः सौ आयंबिल तक बढ़ाना और बीच
बीच में इस तप में २४ वर्ष, ३ महीने और २० दिन का समय लगता है। आरा-विभाग। आरोग्य-बौद्धों का स्वर्ग । आर्तध्यान-प्रिय के वियोग एवं अप्रिय के संयोग में चिन्तित रहना। आशातना-गुरुजनों पर मिथ्या आक्षेप करना, उनकी अवज्ञा करना या उनसे अपने आपको
बड़ा मानना। आश्रव-कर्म को आकर्षित करने वाले आत्म-परिणाम । कर्मागमन का द्वार । इच्छा परिमाण व्रत-श्रावक का पांचवां व्रत, जिसमें वह परिग्रह का परिमाण करता है। ईर्या-देखें समिति। उत्तर गुण-मूल गुण की रक्षा के लिए की जाने वाली प्रवृत्तियाँ। साधु के लिए पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा, अभिग्रह आदि । श्रावक के लिए दिशावत
आदि। उत्तरासंग--उत्तरीय । उत्सपिणी-कालचक्र का वह विभाग, जिसमें प्राणियों के संहनन और संस्थान क्रमशः
अधिकाधिक शभ होते जाते हैं. आय और अवगाहना बढती जाती है तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार भौर पराक्रम की वृद्धि होती जाती है। इस समय में प्राणियों की तरह पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी क्रमशः शुभ होते जाते हैं। अशुभतम भाव अशुभतर, अशुभ, शुभ, शुभतर होते हुए शुभतम होते जाते हैं। अवसर्पिणी काल में क्रमशः ह्रास होते हुए न हीनतम अवस्था आ जाती है और इसमें
उत्तरोत्तर वृद्धि होते हुए क्रमशः उच्चतम अवस्था आ जाती है। उत्सूत्र प्ररूपणा-यथार्थता के विरुद्ध कथन करना। उदीरण-निश्चित समय से पूर्व ही कर्मों का उदय । उद्वर्तन-कमों की स्थिति एवं अमुभाग-फलनिमित्तक शक्ति में वृद्धि। उपयोग-चेतना का व्यापार--ज्ञान और दर्शन। ज्ञान पाँच हैं-१. मति, २. श्रुत,
३. अवधि, ४. मनःपर्यव और ५. केवल । उपांग-अंगों के विषयों को स्पष्ट करने के लिए श्रुतकेवली या पूर्वधर आचार्यों द्वारा रचे
गये आगम । इनकी संख्या बारह है-१. उववाई, २. रायपसेणिय ३. जीवाभिगम, ४. पत्रवणा ५. सरियपणची, ६. जम्बूदीप पणत्ती ७. चन्द प्रण्णत्ती ८. निरयावलिया, ६. कल्पावत्तंसिका, १०. पुक्तियों, ११. पुष्पचूलिया और १२. वन्हिदसा।
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org