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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
छुटकारा प्राप्त होता है, क्योंकि सिंह नहीं रहता, जैसा पूर्व वर्णित है, वह छलांग लगाकर मर जाता है ।
निग्रोध मृग की कथा में राजा विद्यमान रहता है, किन्तु, अपनी ओर से वह सबको अभय-दान दे देता है । यों छुटकारा होता है, जो अपना वैशिष्ट्य लिये है ।
सिंह और शशक
एक वन था । उसमें एक सिंह रहता था । उसे हरिण का मांस बहुत प्रिय था, बड़ा रुचिकर था । वह रोज हरिण मारता और खाता । यों अपेक्षित, अनपेक्षित बहुत हरिण मरते रहते ।
एक समझौता
एक दिन वन के सब हरिण मिले। वे मृगराज के पास पहुँचे। उन्होंने निवेदन किया - "स्वामिन् ! हम हर रोज वन में से एक प्राणी आपके खाने हेतु भेजते रहें, आप इस प्रकार हमें न मारें, जैसा रोजाना करते हैं । हम आपकी प्रजा हैं, हमारी रक्षा करें ।"
सिंह को हरिणों का यह सुझाव सुन्दर लगा । उसने सोचा – अच्छा ही है, बिना दौड़-धूप किये, घर बैठे मुझे भोजन प्राप्त होता रहेगा । उसने हरिणों को इसके लिए अपनी स्वीकृति दे दी ।
प्रतिदिन वन से एक प्राणी सिंह के पास पहुँच जाता । वह उसे मारकर खा लेता । यह क्रम चलता रहा ।
चातुर्य का चमत्कार
बूझकर पहुंचने
में
सिंह बहुत क्रुद्ध
वन में एक वृद्ध शशक था । यथाक्रम उसकी बारी आई। उसने जान 'कुछ देरी की। वह जब सिंह के पास पहुँचा, तब सूरज निकल चुका था । था। वह दहाड़ता हुआ बोला- - "नीच ! आने में इतना विलम्ब कैसे हुआ ?" खरगोश ने भय से काँपते काँपते जवाब दिया- "स्वामिन् ! मैं यथासमय आपकी सेवा में चला आ रहा था, मार्ग में मुझे एक अन्य सिंह मिल गया । उसने मुझे रोक लिया और प्रश्न किया- "तुम कहाँ जा रहे हो ?"
मैंने कहा - " मैं बन के राजा सिंह के पास जा रहा हूँ।"
वह बोला- “मेरे अतिरिक्त इस वन का राजा और कौन है ? वन का राजा तो
मैं हूँ ।"
मैंने उससे कहा - "यदि मैं उस सिंह के पास न पहुँच सका तो वह मेरे और मेरे साथियों के प्राण ले लेगा । यों किसी तरह उसको फुसलाकर उससे छुटकारा पाकर आप तक पहुँचा हूँ ।"
आवेश का फल
खरगोश का कथन सुनकर सिंह क्रोध से लाल हो गया। उसने खरगोश से कहा “चलो, मुझे बतलाओ, वह दुष्ट कहाँ है ? अभी उसकी बुद्धि ठिकाने लगाता हूँ ।" खरगोश आगे-आगे चला, सिंह उसके पीछे-पीछे चला । कुछ दूर चलने पर एक कुआँ
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