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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-वासुदेव कृष्ण : घट जातक ५१३ पूतना को दुश्चेष्टा : समाप्ति सूर्पक नामक विद्याधर था । वह दिवस्तिलक नगर के विद्याधर-राजा त्रिशिखर का पुत्र था । वसुदेव ने वि शिखर का युद्ध में वध किया था। इस कारण सूर्पक के मन में वसुदेव के प्रति तीव्र शत्रुभाव था। सूर्पक की पुत्रियाँ शकुनि और पूतना वसुदेव से अपने पितामह के वध का प्रतिशोध लेना चाहती थीं, पर, वसुदेव का कुछ अहित करने में, बुरा-बिगाड़ करने में वे अक्षम थीं; अत: उन्होंने वसूदेव के पुत्र कृष्ण की हत्या करने का गोकूल में आईं। अनुकल अवसर की टोह में रहने लगीं। एक दिन उन्हें वैसा अवसर प्राप्त हो गया। नन्द और यशोदा कार्य-वश घर से बाहर गये हए थे। कृष्ण घर के एक प्रकोष्ठ में अपने छोटे से बिछौने पर सोया था, किलकारियाँ लगा रहा था। शकुनि और पूतना वहाँ गईं। वे कृष्ण को उस प्रकोष्ठ से प्रांगण में निकाल लाईं। शकुनि कहीं से एक गाड़ी घसीटकर वहाँ ले आई। गाडी का चक्का कृष्ण की छाती पर रखकर जोर से दबाने लगी। कृष्ण को भयद्रुत बनाने हेतु वह चक्के को दबाने के साथ-साथ अपने मुख से भयंकर आवाजें भी निकालने लगीं। उसने कृष्ण की जान लेने का पूरा प्रयत्न किया, किन्तु, वह असफल रही। पूतना ने एक और युक्ति सोच रखी थी। उसने अपने स्तनों पर विष का लेप कर रखा था। उसने अपने स्तन कृष्ण के मुंह में दे दिये, पर, कृष्ण पर विष का कोई प्रभाव नहीं हुआ। दोनों विद्याधारियाँ कृष्ण के प्राण लेने को अपनी ओर से पूरी दुश्चेष्टा कर रही थीं, इतने में वासुदेव के रक्षक देव वहाँ आये और उन्होंने उन दोनों विद्याधारियों को ठिकाने लगा दिया । विद्याधरी शकुनि द्वारा लाई गई गाड़ी को तोड़ डाला। श्रीकृष्ण को वापस उसके प्रकोष्ठ में पहुंचा दिया। नन्द बाहर से आया। आंगन में जो दृश्य देखा तो स्तब्ध हो गया-गाड़ी टूटी पड़ी थी। नन्द सोचने लगा-उसकी अनुपस्थिति में यह कैसे घटित हुआ। उसका हृदय भय से धड़कने लगा। वह भीतर गया। कृष्ण को खोजने लगा। कृष्ण अपनी छोटी-सी शय्या में बड़े आराम से सोया था। नन्द ने एड़ी से चोटी तक उसको देखा, कहीं कोई चोट तो नहीं लगी। उसने कृष्ण को सर्वथा सुरक्षित पाया। वह आश्वस्त हुआ। पुत्र को गोदी में उठाया। बाहर निकला, अपने भृत्यों को आवाज दी। मृत्य आये। उसने प्रांगण की ओर संकेत करते हुए उनसे कहा - "तुम कहाँ थे? यह सब क्या हुआ ? किसने किया?" सारी स्थिति देखकर भृत्य हतप्रभ रह गये । उनके मुंह से कोई शब्द नहीं निकला। नन्द बोला-"मेरा भाग्य ही कुछ ऐसा था कि मेरा बेटा बच गया । अन्यथा न जाने क्या अघटनीय घटित हो जाता । एक गोप ने अपने अधिपति नन्द से कहा -- "स्वामिन् ! आपका पुत्र बड़ा शक्तिशाली है। इसने ही इन दोनों के प्राण हर लिये हैं, गाड़ी को तोड़ डाला है।" ___ नन्द आश्चर्यान्वित था । सस्नेह, सोल्लास पुत्र का मुख निहार रहा था, इतने में यशोदा आई । जो कुछ देखा, उससे वह घबरा गई । उसका दिल धड़कने लगा। पुत्र की देह पर हाथ फेरा। उसे अक्षत, अप्रति हत पाकर सन्तुष्ट हुई । नन्द ने यशोदा से कहा-"जो भीषण उपद्रव हुआ, उससे हमारे भाग्य ने हमें बचा Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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