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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३६३ डालूंगा। इस पर भेरी परिव्राजिका ने अपना हाथ अपने मस्तक पर रखा, जिसका अर्थ यह था कि उसका मस्तक ही काटना तत्पश्चात् महौषध ने अपना हाथ अपने पेट पर रखा। इसका आशय यह था कि मैं राजा को बीच में से काटकर उसके दो टुकड़े करूंगा, उसका राज्य अपने अधिकार में कर लूंगा। इसलिए राजन् ! आप अप्रमत्त रहें, सावधान रहें। इस दुष्ट महौषध को मरवा डालें, यही उचित है।" उन स्त्रियों ने परिव्राजिका और पण्डित के हस्त-संकेतों के अभिप्रायों का जो मेल मिलाया, राजा को वह ऊटपटांग लगा। राजा को उनके कथन पर विश्वास नहीं हुआ। उसने सोचा-महौषध पण्डित मेरे साथ किसी भी स्थिति में शत्रु-भाव नहीं रख सकता। मैं भेरी परिवाजिका से इस सम्बन्ध में बात करूंगा। परिवाजिका द्वारा समाधान __ दूसरे दिन भेरी परिव्राजिका जब राजभवन में भोजन करने आई तो राजा उसके पास गया तथा उससे पूछा-''आर्ये ! क्या आप की महौषध पण्डित से भेंट हुई ?" परिवाजि का-"हां, राजन् ! कल मैं जब यहाँ से भोजन कर जा रही थी, तब मेरी उससे भेंट हुई।" राजा-"क्या आप दोनों में कुछ वार्तालाप हुआ है", परिवाजिका"वार्तालाप नहीं हुआ, पर, मैंने विचार किया, सुनती हूं, यह पण्डित है और यदि यह वास्तव में पण्डित है, विशिष्ट प्रज्ञाशील है, तो अवश्य समझेगा। मैं संकेत द्वारा इससे कुछ पूर्वी, इसकी परीक्षा करूं । यह सोचकर मैंने अपना हाथ फैलाया-हस्त-संकेत द्वारा यह प्रश्न किया कि राजा का हाथ तुम्हारे लिये खुला है या नहीं ? वह तुम्हें उपहार, भेंट आदि के रूप में द्रव्य, वस्तुएँ आदि देता है या नहीं ?" "पण्डित ने मुझे इसका अपने हाथ की मुट्ठी बन्द कर सांकेतिक उत्तर दिया, जिसका अर्थ यह था कि मुझे वचनबद्ध कर यहाँ बुला तो लिया, पर अब उसने अपना हाथ सिकोड़ लिया है, मुट्ठी बन्द कर ली है मुझे विशेष कुछ नहीं देता। तब मैंने अपने मस्तक पर हाथ लगाया। मेरा आशय यह था कि वर्तमान स्थिति में तुम तकलीफ पाते हो, तो मेरी तरह संन्यास क्यों नहीं ले लेते ? "महौषध ने इसके प्रत्युत्तर में अपने हाथ से अपने उदर का स्पर्श किया, जिसका अभिप्राय यह था कि मुझ अकेले का पेट नहीं है, ऐसे अनेक पेट भरने पड़ते हैं, इसलिए मेरे लिए यह कैसे संभव है कि मैं संन्यास ले सकूँ।" राजा-'आर्ये ! महौषध बहुत बड़ी प्रज्ञा का धनी है।" परिव्राजिका--- "इस भूमंडल पर उसके सदृश अन्य प्रज्ञाशील पुरुष नहीं है।" राजा भेरी परिव्राजिका से वार्तालाप कर, उसे प्रणाम कर अपने कक्ष में चला गया। महौषध पण्डित राजा की सेवा में आया। राजा ने उससे प्रश्न किया-"पण्डित ! क्या तुम्हारी भेरी परिवाजिका से भेंट हुई ?" महौषध ने कहा-"हां राजन् ! कल जब वह यहां से भोजनोपरान्त वापस लौट रही थी, तब मैंने उसे देखा। उसने हाथ के संकेतों द्वारा मुझसे कुछ प्रश्न किये । मैंने भी हस्त-संकेतों द्वारा उनके उत्तर दिये । उसके जैसे प्रश्न थे, मेरा भी सांकेतिक उत्तरों के रूप में वैसा ही समाधान था।" राजा महौषध पण्डित पर बहुत खुश हुआ। उसको सेनापति पद पर नियुक्त कर दिया। उसे राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों का उत्तरदायित्व सौंप दिया। पुरस्कार में पुष्कल Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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