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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड :३
वह बड़ी प्रिय, कान्त और इष्ट थी। उदुम्बर वृक्ष से प्राप्त होने के कारण वह उदुम्बरा देवी के नाम से विश्रुत हुई। राजा उसके साथ सुख से रहने लगा। राजा जिस मार्ग से अपने बगीचे में जाया करता था, नगर-द्वार के निकटवर्ती ग्राम के निवासी उसे ठीक कर रहे थे। बौना पिंगुत्तर भी वहाँ मजदूरों में काम लगा था। वह काछ कसे था, हाथ में फावड़ा लिये था, मार्ग सुधार रहा था। यह कार्य चल ही रहा था कि राजा उदुम्बरा देवी के साथ रथारूढ़ हुआ उधर से निकला। उदुम्बरा देवी ने उस अभागे को मार्ग साफ करते देखा तो वह यह सोचकर हंस पड़ी कि यह कैसा भाग्यहीन है, ऐसी सुरम्य लक्ष्मी को भी सहेज नहीं सका।
राजा ने जब उदुम्बरा को इस प्रकार हंसते हुए देखा तो वह क्रुद्ध हो उठा। उसने उससे पूछा- "तुम अकस्मात् कैसे हँस पड़ी?" उदुम्बरा बोली- "देव ! मार्ग काटने वाला, सुधारने वाला यह बौना मेरा पहले पति था। इसने मुझे गूलर के वक्ष पर चढ़ाया, फिर उस वृक्ष को काँटों से घेर कर वहां से भाग गया। इस समय मैंने जब इसे देखा तो मेरे मन में आया, यह कैसा मनहूस आदमी है, जिसे ऐसी लक्ष्मी भी नही रुची।"
राजा को उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने म्यान से तलवार सूत ली और उससे कहा-"तुम असत्य बोलती हो। तुम अवश्य ही किसी अन्य पुरुष को देखकर हँसी हो। मैं तुम्हें जान से मारूंगा।" उदुम्बरा डर गई और कहने लगी-"देव ! अपने पण्डितों से इस सम्बन्ध में जिज्ञासा कीजिए।"
राजा ने सेनक पण्डित को बुलाया और उसे इस सम्बन्ध में पूछा-"क्या तुम इस स्त्री के कथन पर विश्वास करते हो?"
सेनक ने राजा को उत्तर दिया-"मैं इसके कथन पर विश्वास नहीं करता। राजन! ऐसी रूपवती स्त्री को छोड़कर कौन जायेगा।" उदुम्बरा ने जब सेनक का कथन सुना, तब और डर गई।
राजा ने सोचा-केवल सेनक के कहने मात्र से यह बात नहीं मान लेनी चाहिए। मैं महौषध पण्डित से भी पूछ। यह विचार कर राजा ने महौषध से कहा- "महौषध ! स्त्री रूपवती भी हो, शीलवती भी हो, फिर भी पुरुष उसकी कामना न करे, क्या तुम इस बात पर विश्वास करते हो?"
यह सुनकर महौषध पण्डित ने कहा-"राजन् ! मैं इस बात पर विश्वास करता हूं; क्योंकि मनुष्य दुर्भग-दुर्भाग्यशाली हो सकता है। लक्ष्मी का तथा अभागे पुरुष का कदापि मेल नहीं होता।"
महौषध पण्डित की बात सुनकर राजा का क्रोध मिट यया। उसका उद्वेग शान्त हो गया। राजा महौषध पर बहुत प्रसन्न हुआ। उसे एक लाख मुद्रा पुरस्कार-स्वरूप भेंट की। राजा बोला-'पण्डित ! यदि तुम यहाँ नहीं होते तो मैं अज्ञ सेनक की बात में आकर ऐसे उत्कृष्ट स्त्री-रत्न को खो बैठता । तुम्हारे ही कारण यह बच सकी है।"
१. इत्थी सिया रूपवती, सा च सीलवती सिया।
पुरिसो तं न इच्छेय्य, सद्दहासि महोसध ! ॥६॥ २. सद्दहामि महाराज ! पुरिसो दुष्भगो सिया । सिरी च काल कण्णी च न समेन्ति कदाचन ।।७।।
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