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२२४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ रूप में वहाँ आया, शिशु के हाथ पर एक वनौषधि-जड़ी रख दी। वैसा कर वहाँ से अपने स्थान को चला गया। बोधिसत्त्व ने उस जड़ी को अपनी मुट्ठी में दबा लिया। फलतः अपनी माता की कुक्षि से बहिर्गत होते समय उसकी माता को जरा भी कष्ट नहीं हुआ। पानी के बर्तन से जिस प्रकार पानी बाहर आ जाता है, उसी प्रकार वह सुख से माता की कुक्षि से से बाहर आ गया। माता ने शिशु के हाथ में जड़ी देखी। उसे जिज्ञासा हुई। उसने पूछा"पुत्र ! हाथ में क्या लिये हो ?" शिशु बोला-"मां ! यह दिव्य औषधि है।" यों कहकर उसने वह जड़ी माता के हाथ में रख दी तथा कहा-"मां ! यह दिव्य औषधि हर किसी रोगी को देने पर उसका रोग दूर हो जाता है।"
माता बड़ी प्रसन्न हुई। उसने अपने पति श्रीवर्धन सेठ से सारी बातें कहीं । सेठ के सात वर्ष से मस्तक में पीड़ा थी। वह बहुत प्रसन्न हुआ और विचारने लगा, शिशु की अद्भुत विशेषता है, मां को कोख से बाहर आने के समय ही उसके हाथ में वनौषधि रही है । उत्पन्न होते ही यह अपनी माता के साथ वार्तालाप करने लगा। वास्तव में यह बड़ा पुण्यवान् है। इसने जो औषधि दी है, उसका निश्चय ही विशिष्ट प्रभाव होना चाहिए। सेठ ने वह वनौषधि ली, उसे पत्थर पर रगड़ा, मस्तक पर थोड़ा-सा लेप किया। कमल के पत्ते से जैसे पानी झड़ जाता है, उसी प्रकार सेठ की सात वर्ष पुरानी पीड़ा बिल्कुल मिट गई।
सेठ औषधि के प्रभाव से बड़ा हर्षित हुआ। बोधिसत्त्व वनौषधि के साथ उत्पन्न हुए हैं, यह बात सर्वत्र विश्रुत हो गई । अनेक व्यक्ति, जो विभिन्न रोगों से पीड़ित थे, सेठ के यहाँ आने लगे। सेठ औषधि को पत्थर पर घिसता, पानी में घोलकर दे देता, रोग तत्क्षण शान्त हो जाते । औषधि के प्रभाव से स्वस्थ हुए लोग औषधि की प्रशंसा करते, गुणाख्यान करते, कहते-श्रीवर्धन सेठ के यहाँ बड़ी गुणकारी औषधि है।
नामकरण
बोधिसत्त्व के नामकरण का दिन आया। श्रीवर्धन सेठ ने विचार किया, मेरे इस पुत्र का नाम पितृ-पितामह-परंपरा के अनुरूप नहीं होना चाहिए, विशिष्ट औषधि के साथ जन्म लेने के कारण इस नाम तदनुरूप ही होना चाहिए; अतएव उसने उसका नाम महौषधकुमार रखा।
सहस्र सहजात
सेठ के मन में विचार आया, मेरा यह पुत्र परम प्रज्ञा-सम्पन्न है। यह एकाकी ही लोक में आए, ऐसा नहीं लगता। इसके साथ उसी घड़ी में और भी अनेक बच्चे उत्पन्न हुए होंगे। इसकी खोज करवानी चाहिए। उसने खोज करवाई तो वैसे एक हजार बच्चे मिले। उसने सभी बच्चों के माता-पिता के यहाँ आभूषण भिजवाये तथा उनके भलीभाँति पालनपोषण के लिए धात्रियाँ भिजवाईं। उसने विचार किया, ये मेरे पुत्र के साथ-साथ ही जन्मे हैं ; अतः ये उसी के साथ रहने वाले सेवक हों, यह समुचित होगा। उसने बोधिसत्त्व, जो उसके पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए थे, के साथ उन हजार शिशुओं का भी मंगलोत्सव आयोजित करवाया। समय-समय पर उन शिशुओं को आभूषणों से अलंकृत कर बोधिसत्त्व की सन्निधि
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