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________________ तत्त्व : प्राचार : कथानुयोग] कमानुयोग-मातंग हरिकेश बल. मातंग जातक १४७ बेंतों तथा चाबुकों से मुनि को मारने लगे। मुनि को यों पीटे जाते देखकर कोशल नरेश को भद्रा नामक रूपवती राजकुमारी उन क्रुद्ध ब्राह्मण-कुमारों को शान्त करने लगी। वह बोली-“देवता के अभियोग से प्रेरित राजा ने-मेरे पिता ने मुझे मुनि को दिया था, पर, मुनि ने मन में भी मेरा ध्यान नहीं किया। नरेन्द्र-राजा, देवेन्द्र-देवराज शक से अभि.वन्दित-पूजित, सम्मानित, उग्र तपस्वी, महात्मा-महान आत्मबल के घनी, जितेन्द्रिय संयमी तथा ये ब्रह्मचारी; वही मुनि हैं, जिन्होंने मेरे पिता कौशल नरेश द्वारा मुझे उन्हें अपित किये जाने पर भी स्वीकार नही किया, मेरा परित्याग कर दिया। ये परम यशस्वी अत्यन्त प्रभावशाली, घोर व्रती एवं घोर पराक्रमी-अत्यन्त सामर्थ्यशील हैं। उनकी अवहेलना-तिरस्कार मत करो। अपने तेज से कहीं ये भस्म न कर डालें।" यक्षद्वारा दण्ड राजकुमारी मद्रा के इन सुभाषित वचनों को सुनकर वह यक्ष ऋषि के वैयावत्य हेतु-सेवार्थ अथवा ऋषि को बचाने के लिए ब्राह्मण-कुमारों को विनिवारित करने लगारोकने लगा। यक्ष ने भयावह रूप धारण किया। आकाश में स्थित होकर वह उनको मारने लगा। उनके शरीर क्षत-विक्षत हो गये, मुंह से रक्त गिरने लगा। भद्रा ने यह देखकर ब्राह्मरम-कुमारों को कहा-"तुम लोग एक भिक्षु की जो प्रवमानना-अवहेलना या अपमान कर रहे हो, यह कार्य पहाड़ को नखों से खोदने, लोहे को दांतों से चबाने और आग को पैरों से बुझाने जैसा मूर्खतापूर्ण है। ये महर्षि आशीविष' 'लब्धि-शाप द्वारा दूसरों को नष्ट करने के सामर्थ्य से युक्त, उग्र तपस्वी, घोर व्रती तथा 'घोर पराक्रमी हैं । तुम भिक्षा-वेला में भिक्षु को पीट रहे हो, यह स्वयं अपने नाश के लिए अग्नि में गिर रहे पतिंगों की तरह कार्य है । यदि तुम अपने जीवन और धन की रक्षा करना चाहते हो तो सब मिलकर, मस्तक नवा कर इनकी शरण लो। कुपित हुए ये महर्षि सारे जगत् को भस्मसात् कर सकते हैं।" ब्राह्मण-कुमारों की दुर्दशा : यज्ञाधिपति द्वारा क्षमा याचना उन ब्राह्मण-कुमारों के मस्तक पीठ की ओर मुड़ गए, हाथ निढाल हो, फैल गए । वे निष्क्रिय-चेष्टा-रहित हो गए। उनकी आँखें पबरा गईं। मुखों से खून बहने लगा। मंह मेवे खिंच गए। जिहा तथा नेत्र बाहर निकल पाए। वे काठ की तरह जहह हो गए। उनकी ऐसी दशा देखकर यज्ञाधिपति ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ मागे पा ऋषि को प्रसन्म करने हेतु कहने लगा-"भगवन् ! हमने आपकी अवहेलना-अवज्ञा और निन्दा की, उसके लिए हमें क्षमा कीजिए। मुनिवर ! इन मूर्ख, अज्ञानी बालकों ने प्रापकी जो अवहेलना कीतिरस्कार किया, इसके लिए आप क्षमा करें। ऋषि तो अत्यन्त कपाशील होते ही हैं। वे क्रोष नहीं करते।" १. व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र ८.२.१९ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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