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२६४० ]
नवमभषि रुप्पिणिहरण
[२६३४]
नियय-वहुयह सविहि खणु एगु चिट्ठिज्जसु भाय तुहुँ हउं दलेमि जिह दप्पु सत्तुहूं । ता पभणइ मुसलि - नणु वहुय-सविहि इह किह णु चिट्ठहुं॥ सत्तुहुँ एयहं पुणु हउं वि दप्पु दलेसु निरुत्तु । ता चिट्ठसु वीसत्थ-मणु तुहुं रूप्पिणि रक्खंतु ॥
[२६३५] ता रुप्पिणीए भणियं भेसय-निवई स-रुप्पियं पसिउं ।
रखिज्ज तुमे जइ वि-हु कुणंति ते तुम्ह अवराहो ॥
[२६३६] पडिवज्जिऊणमेयं रामो सत्तूण सम्मुहीहूओ ।
नंगल-मुसलत्थेहिं य खणेण ते तेण परिविजिया ॥
[२६३७] अह दो-वि सिद्ध-सज्झा आरुहिऊणं रहेसु अणुकमसो।
वारवइ-सविह-देसे पत्ता जा ता पुरो हरिणो॥
[२६३८] जंपेइ रुप्पिणी - पिय किमिमं दीसइ पुरोरुणच्छायं ।
ता वियसिय-मुह-कमलो जणदणो जंपए - सुयणु ॥
[२६३९] नणु एसा कंचणमय-पायार-घरोह-विवणि-जिणभवणा ।
मज्झ कए सुरवइणा कारविया वारवइ नयरी ॥
[२६४०] __ तयणु रुप्पिणि भणइ - नणु नाह इह चिट्ठहिं तुह दइय अमर-तरुणि-सम-रूव-रिद्धिय । हउं आणिय वंदिणि व गहिवि वेस-सिंगार-वज्जिय ॥ इय आहरिय-विहूसियहिं तरुणिहिं अहरिय-चित्तु । मह समुह वि न निरिक्खिहिसि तत्थ पहुत्तु निरुत्तु ॥
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