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तइयर्भाव चित्तगइवुत्तंतु
[२७८]
किं न संपइ पसिय संभासु वियरेसि निय-परियणह कहसि स-दुहु न य जणणि-जणयहं । न य दिहि-पसाउ किह कुणसि पियहं पहु विणय-पणयई ॥ अ-विणउ को विन कुणइ तुह सुहय सुमित्त-कुमार । ता उढिवि लहु सुहि-सयण संभूससु जय-सार ॥
[२७९]
एत्थ-अंतरि सूरतेयस्सु खयरिंदह अंगरुहु दुहिय-सरणु वहु-बल-समन्निउ । वच्चंतउ नह-यलिण पत्तु तत्थ वंदियण-वनिउ ॥ मुगहिय-नामु महा-महिमु चित्तगई-अभिहाणु । नियइ समग्गु वि तं नयरु विलसिर-सोय-निहाणु ॥
[२८०]
न वि य निमुणइ मंगलुग्गारु न य कत्थवि गेय-झुणि न वि य ललिउ वोल्लंत मिहुणइं । न य मंगल-तूर-रवु न वि य पढिर-वंदियण-वयणई ॥ नवरि पहाविर-पडिखलिर- देवि-निवइ-मंतीहिं । बियइ सुमित्तु तहा-विहु वि उल्लाविरु जुत्तीहि ॥
[२८१]
तयणु गयणह अवयरेऊण सहस च्चिय चित्तगइ भणइ पुरउ वसुहाहिरायह । मा नरवर सोउ करि करिसु सज्ज तणु तुज्झ जायह ॥ अह नरवइ वियसिय-वयणु भणइ - पसिउ नर-रयण । जीवावसु एहु कुमरु जह अम्हि वि जियहुँ स-सयण ॥ २८.. ६. क. पविखलिर. २८१. १, फ. गयणहं.
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