________________
ફ
[२६६] जो य बहुविह- समर-संरंभ
हरिय-सयल - रिउ - कुल-मडप्फरु |
संपत्त-कित्ति पसरु अलि- मरगय-गवल-हर- गल-तमाल-दल- कंति- वित्थरु || तियस - विसेस - विइण्णु बहु- पुरिस-परंपर-पत्तु । तुह हिस्सइ असि रयणु तुममवि जिणिवि निरुत्तु ॥
विज्जाहर-कुल- तिलउ
[२६७]
सो सुरायल - तुंग- माहपु
नायव्वउ रयणवइ
tय निणिवि नेमित्तियह चिंत हरिस विसाय- भर
नेमिनाearts
Jain Education International 2010_05
निय-पयाव- निज्जिय-दिवायरु । कुमरि-दइउ पणमंत - सुह-यरु || वयणु झत्ति खयरिंदु | विन्दिय-मुह-अरविंदु ||
[२६८]
अहह को मह दलिय-नीसेस
रिउ-नियर - मडप्फरह हणि माण-खंड करिस्सर । सुर- वियरिउ असि- - रयणु दढ - पयावु एहु जो गहिस्सइ ॥ अहव न विम्हउ धरणि-यलि गुरु गरुयर भरियम्मि |
गया वि मण वल्लहइ
माण- रयणि हरियम्मि ॥
२६६- ९. पणचत्तई. २६७. १. क. जो प.
[२६९]
अव एस वि मज्झ गुरु रिद्धि
नर- रयणु जइ तारिसउं Fat कह वि कुमरिहि पियत्तिण । ता किज्जउ तस्सु अवलोयणत्थु आरंभु जत्तिण ॥
te परिभावि कारणिय
माणव सहावे । स-वियप्पिङ साइ ॥
अह तह सयलु त्रिखयर- वइ
For Private & Personal Use Only
[ २६६
www.jainelibrary.org