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१८२४ ] सत्समभवि संखवुत्तंति महावीरचरिउ
[१८२१]
तयणु कंचण-कंति-जालोलिपिंगलिय-अंबर-विवरु नियवि वज्जु सम्मुहु उतउ । भय-वेविर-तणु चमरु जीवियव्य-आसहं वि चत्तउ ।। उप्परि पइहिं अहो-मुहिण मण-वेगेण पलाणु । पहु पहु तुहुं मह तुहुँ सरणु सरणु एम्ब भणमाणु ॥
_[१८२२]
देह-वित्थरु कमिण संहरिवि छच्चलण-पमाण-तणु
सामि-साल-पय-तलि निलुक्कउ । अह सक्किण मुणिवि निय- नाण-वलिण जह - मज्झ दुक्कउ ॥ इह धुवु वीर-जिणेसरह पाय-निस्स गिण्हेवि । ता घिसि घिसि मई विलसियउं किमिमह वज्जु मुएवि ॥
[१८२३]
खणिण धाविवि पवण-वेगेण पहु-पाय-सविहिहिं गमिरु वज्ज-रयणु संगहिवि हस्थिण । पणमेप्पिणु खामिउण सामि-सालु हियइण पसत्थिण ॥ जंपइ चमरिंदह पुरउ सुर-वर तइं किउ सुटु । जं निस्सहं जय-बंधवह तुहुँ मह सहहं पविछु ।
[१८२४]
किह-णु अन्नहं मह सयासाउ जीवंतउ छुट्टिउण आगो सि एदह-पहंतरि । ता भुंजसु तुट्ट-मणु पहु-पसाय-जोगेण सुर-सिरि ॥ इयरो वि-हु पावेइ नरु सुहई स-पावहं अंति । कडुयाई वि निवहं फलई महुरीहुंति वसंति ॥ १८२१. १. क. जालोलिं.
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