________________
१६४८]
सत्तमभधि संखवुत्तंतु
३७५
[१६४५]
नणु पयंपइ एहु किं किं ति पुच्छंता पुणु पुणु वि गरुय-रविण इयरिण निवेइउ । जइ कहमवि मुणहिं पर- वयणु वुड्ढ-हिय-करु वि साहिउ ॥ तह-विन किन्नर-गेय-झुणि- गोयरि विरमहिं पाव । चिर-परिसंचिय-अमुह-भर नरइ न निवड हि जाव ॥
[१६४६]
इय अहं पि-हु जाव वच्चामि न इमेरिस विसम-दस- विसइ ताव गुरु-महिम कारिवि । सिरि-संख-कुमार-वरु निय-करेहिं रज्जम्मि ठाविवि ।। मेलेविणु सयलो वि निय- रज्ज-पहाणु जणोहु । चरणु चरेविणु सिव पुरिहिं वच्चहुं ससि-सिय-वोहु ।।
[१६४७]
इय विचिंतिवि सयण मेलेवि परिसाहिवि नियय-मणु गहिवि तेसि सम्मयउं अइरिण । स-तणूरुहु संठवइ नियय-रज्जि पसरंत विहविण ॥ अह सविसेस-पहिट्ठ-मणु पमुइय-सयल-जणम्मि । कारावइ बद्धावणउ नरवइ निय-नयरम्मि ॥
[१६४८]
कहं - (८)
वंछियत्य-प्पयाणुल्लसिय-देसियं । गरुयरुल्लास-सुम्मत-हय-हेसियं ॥ ठाण-ठाणेसु-कीलंत-वर-हस्थियं । मंदिर-दार-दिज्जंत-वहु-सस्थियं ॥१॥
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org