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विदुरं तर सठिय वि ता मोह- पिसाय - हय
[१६४१]
जमिह मालइ - माल तव्वन्न
नेमिनाहचरिउ
मुग्गर- निस्स व मुहह जरहं विडंवण धुवु बुह
परिगसिय- चंदण - रसह वज्र्जत-जर द्वियह अंग-भोग आहरण-विहि आयणिय- जिण-व
-वयण- लघु
[१६४२ ]
सच्च - अंगि य गरुय-वलि -विवर
परिवियलिय - वेयणिण
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मुद्ध- देसि दुल्लक्ख जायइ । मणहं कुसुम-संभोगु भावइ ॥ निरु गलंत पिक्कस्सु । सेवा तंबोलस्सु ॥
[१६४३]
रसु न नज्जइ सम्मु जर वसिण
परिसंडत - नीसेस छाय६ । वाय- उदय - कंपिरह कायह । मंडण - विहि वि किलेसु | कुणइ कु एहु असेसु ||
विवोहि पवाल-दलपउमारुण - पाणि मरुएस चि इय इयर - जण सयम नियंता तह - वि निरु
१६४४. ७. क. भणहि.
कप्पूरागुरु- पमुह अणुरज्जर - अविवेय- घण अ-मुणिय-चंगाचंग | reg विगोर्हि वप्पुडा जर जज्जर- सव्वंग ॥
जणिण अहह तत्थ वि सुहासय । सुरहि-त्-सत्थिवि हयासय ॥
[१६४४]
अहह ससहर-वयणि हरिणच्छि
अहर कणय - कलस - प्पओहर । कूब - नाहि - मंडल - मणोहर || वयणिण मुणहिं हयास | तरुणिहि वंधहि आस ॥
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