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१५०१ ]
सत्तमभवि संखवुत्तंति रइसुंदरीकहा [१४९२] गहिओ अहमवियक्किय-समागएणं उलूय-अहमेण ।
अह विहि-वसेण तेणं लट्ठयरं लक्खमुवलद्धं ॥१४९॥
[१४९३] गय-जीवियं ति साहीणं ति ममं मुणिय कोट्टरे तरुणो ।
खिविऊण स-कज्ज-कए उड्डीणोलूय-अहमो जा ॥१५०॥
[१४९४] ताव अहं निय-दइयं स-किंटयं सुमरिऊण सुह-मुत्तं ।
मा को-वि अवाओ से हवेज्ज इय चिंतिरो तुरियं ॥१५१॥
[१४९५] उड्डीय कोटराओ संपत्तो नियय-नीड-सविहे जा ।
ता दव-झलक्कियं निय-दइयं दणि महि-वडियं ॥१५२॥
[१४९६] गंतूण सविह-सरे जल-पत्त-पुडं तुरियमाणेउं ।
दट्टुं च मयं दइयं तयणुपहेणं अहं पि मओ ॥१५३॥
[१४९७] जाओ य वेजयंती-नयरीए वुद्धिसार-नामस्स ।
इन्भस्स नंदणोऽहं मइसारो नाम-विक्खाओ ॥१५४॥
[१४९८] मह भवणस्स उ सविहे चिठेइ महाली वडो एगो।
तत्थ य उवेति जति य विहय-कुलाई विचित्ताई ॥१५५॥
[१४९९] अह अन्नया निसाए उवरिम-साहाए तस्स वड-तरुणो ।
आगंतुणं सारस-मिहुणं आवासियं एग ॥१५६॥
[१५०० ता विहि-वसेण तत्थागंतु उलूएण अद्ध-रत्तम्मि ।
तवासि-विहय-वग्गो दिसो-दिसिं नासिओ सयलो ॥१५७॥
[१५०१] अह सारसी स-दइयं अ-नियंती कूजिरी करुण-सदं ।
विविणंतरेसु भमिउं पडिया तत्थेव आगंतु ॥१५८॥ १५.०. २. क. भट्ट.
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