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१४०२ ]
सत्तमभवि संखवुत्तंति रइसुंदरीकहा
[१३९३] तो सविसेसं स विलक्ख-माणसो हरिय- रज्ज- रिद्धि व्व । विमणुम्मणो पत्तो मयणो वेसमण सविहम्मि ॥५०॥
[१३९४] कहइ य निय-वृत्तंतं तत्तो ते दो-वि चिंतमावडिया | स- विलक्खमुल्लवंता कर्हि चि चिद्वंति सुन्न - हरे ॥ ५१ ॥
[१३९५ ] एत्थंतरम्मि विहिणो निओगओ मूलएव अभिहाणो । धुत्त-तिलभ पहुत्तो तेसि दुवेण्डं पि सविहम्मि ॥५२॥
[१३९६] पुट्ठे च तेण नणु किं तुभे अच्चंत - दुक्खमावन्ना |
दीसह अह दो वि-हु ते कहेंति निय-वइयरं तस्स ॥ ५३ ॥
[१३९७] अह ईसीसि हसंतो धुत्तो वज्जरइ - अहहतुभे वि । थी - मेण इमेणं चिट्ठह अवमाणिया एवं ॥ ५४॥
[१३९८ ] ता जंपियमियरेहिं - इमं भणता तुमं व अम्हे वि । किंतु दलिओऽहिमाणो एहि एईए अम्हाण ||५५ ॥
[१३९९] तुब्भ वि जाणिस्सामो सम्मं धुत्तत्तणं जइ इमीए । समगं भुंजसि भोए दो-तिष्णि वि वासराई ति ॥ ५६ ॥
[१४०० ] नणु जइ समगं रइसुंदरिए जा-जीवमवि न भुंजामि । पंच- विप्पे विसए तो नाहं मूलए वोत्ति ॥५७॥
[१४०१] किं पुण ठायव्वं इह तुम्भेर्हि कित्तियाई वि दिणाई | तक्कालमोयणो विन सिज्झेइ छुहालय-वसेण ॥ ५८ ॥
[१४०२] इय दढ-कय-प्पण्णी कं-पि उवायं मणे विणिच्छे । उत्ताराविय केसे जज्जर वत्थाणि परिहेउं ॥ ५९ ॥
१४०२. ३. क. जज्जरइ.
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