________________
३१३
१२४८]
पंचम व अवराइयवुत्तंतु
[१२४५]
इय कयंतह दूउ जय-जंतु सदाविरु धुवु कह-वि मह वि समुहु आविहइ तइयहं । न-वि सत्थु न संवलउं गहिउ तरिमु गच्छंतु जइयह ॥ ता मज्झ वि जुज्जइ न इम्ब वीसत्थह चिट्टेउ । नहि मयरायरि रहइ नरु निय-पवहणु उन्भेउ ॥
[१२४६]
इय विभाविरु धरणि-हरिणंकु अवराजिउ आयरिण कुणइ धम्म-कम्मई निरंतरु । रह-जत्तउ कारवइ महइ विहिहिं तिक्कालु जिण-वरु । आराहइ सुह-गुरु-चलण नव-तत्तई भावेइ । निच्चु वि भव-उन्विग्ग-मणु गुरु-संगमु इच्छेइ ॥
[१२४७]
अह मुणेविणु मणु नरिंदस्सु पुव्वुत्तु जि सिरि-विमलवोह-मूरि केवल-दिवायरु । तहिं नयरुज्जाण-वणि पत्तु विमल-गुण-रयण-सायरु ॥ ता उज्जाणिय-माणविण सुह-गुरु-आगमणेण । वद्धाविउ वसुहाहिवइ भविय-लोय-सुहएण ॥
[१२४८] तयणु नीसेस-निय-सार-परियण-सहिउ । मंति-सामंत-सत्थाह-लोगिण महिउ.॥ चलिउ अइरेण पसरंत-गुण-भूसणो । वियलिय-प्पाय-संसार-रिउ-दूसणो ॥१॥
___Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org