________________
२०४
मिनाहचरिउ
[८०८ ]
इय सुविणु वयणु कन्नयहं
सव्वासि विसेसरु उक्कंठिय खयर वर आगय तिहि खयराहिविहिं कयइ सयंवर - मंडवइ
कुमरीए पइण्णयह सविसेस- समुल्लसियविज्जाहर चक्का हिवह गच्छर्हि चित्तगइहि पुरउ
चंद - मुहिहि त चंदरेहह । वरहि - कुल व उन्नयहं मेहहं । कुमरि विवाहह जोगि । निय - सिरि- अहरिय-सग्गि ||
[८०९]
न उण को विहु खयरु एगह वि
Jain Education International 2010_05
गयउ पारि ता सयण कुमरिहि । हियय - सल्ल संगहिय अरइहि || गुरु-गुण-मणि-भवणस्सु । भणहिं य
- पहु निसुणस्सु ||
--
[८१०]
जो महीयलि गयउ गेहेइ
मय-लंछणु करयलिण धरइ जो व भुय दंडि सुर - गिरि । जुव भुवणि वि उल्लसिउ गसइ पलय- हुयवाहु गुरु सिरि ।। जो स-धराधरु रयण-निहि पियइ पाणि-पुडएण । कुमरि-पण पारिसु वि जाइ न तुह विरहेण ॥
[८११]
इय पसीउण पणय - कारुणिय
सिरि-मुरतेयंगरु
सारय-ससि - विमल-जस
तुम्हि सयंवर - मंडवह
कन्नय - विहिय-पइण्णहं वि पारु जगह दरिसेह ||
भुवण- पयड-गुण- रयण - मंडण । महि-ललंत पडिवक्ख-खंडण || सविहिहिं आगच्छेह |
८०८. २. क. व्विसेसयरु. ४. क. वर missing
८०९. २. क. पयण्णयह. ३. सुयण,
For Private & Personal Use Only
[ ८०८
www.jainelibrary.org