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प्रात्म-अस्तित्व
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नहीं होगी यदि हम यह कहें कि विभिन्न मतभेदों के होते हुए भी आत्मा के पुनर्जन्म सम्बन्धी सिद्धान्त व आत्मा के अनादि अस्तित्व के विलय में समस्त भारतीय दर्शन एक हैं।
पाश्चात्य दर्शन भारतीय दर्शन परम्परा से विलग होकर हम यदि पाश्चात्य दर्शन के इतिहास की ओर नज़र उठाते हैं तो अधिकांशतः वहाँ भी हमें प्रात्मा के अमर अस्तित्व का ही समर्थन मिलता है। पाश्चात्य जगत् का आदि दार्शनिक प्लेटो कहता है-- "संसार के समस्त पदार्थ द्वन्द्वात्मक हैं ; अतः जीवन के पश्चात् मृत्यु और मृत्यु के पश्चात् जीवन अनिवार्य है।" इसी प्रकार सुकरात, अरस्तू आदि प्रमुख दार्शनिकों की निष्ठा भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त में रही है । हीगल प्रभृति कुछ दार्शनिकों ने अनास्तिक्य पर जोर दिया पर जहाँ तक दर्शन परम्परा का सम्बन्ध है, भारतवर्ष की तरह इतर देशों में भी आस्तिक्यवाद का ही प्रभुत्व रहा ।
विज्ञान और प्रात्मा बेकन अभिनव विज्ञान का पिता माना जाता है । इसने दर्शन से पृथक् वैज्ञानिक परिभाषाएँ निश्चित की । प्रत्यक्ष और प्रयोग प्रधान होने से विज्ञान की अभिनव परिभाषानों पर लोगों की आँखें गईं। लोग दार्शनिक की अपेक्षा वैज्ञानिक बनने में अधिक गौरव की अनुभूति करने लगे। माना जाने लगा कि दर्शन का युग बीत गया है और विज्ञान का युग पा गया है ।
वैज्ञानिकों ने अन्य विषयों की तरह आत्मा व पुनर्जन्म के विषय को भी विज्ञान की कसौटी पर कसा। उन्होंने सृष्टि व जीवन के विषय में बताया-'किसी समय पृथ्वी दहकते गैस का गोला थी, जिसमें अणु बिखरे हुए थे। अणु नजदीक आए और अणुगुच्छक बने । विरस व विक्टीरिया अस्तित्व में आये। फिर हलवे जैसे बिना हड्डी के जन्तु अमोयबा आदि। फिर सीधे प्रकृति से आहार ग्रहण करने वाले स्थावर वनस्पति तथा दूसरों पर अवलम्बित रहने वाले जंगम प्राणी । मछलियों का युग, फिर जल, स्थल प्राणी आये। इनमें से कुछ ने हवा व कुछ ने स्थल का रास्ता लिया। फिर वाणी उनके मुंह से फूट निकली। स्तनधारी वानर, वनमानुष, फिर वनमानुष से-आधे वनमानुष, उससे आधे मानव व द्विपद झाड़ियों में किलकिलाने लगे। इन्ही में से कुछ जोड़े विकास की उस अवस्था में पहुँच गये जहाँ जाति परिवर्तन (Mutation)
१. पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास । २. पाश्चात्य दर्शनों का इतिहास ।
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