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जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान दशा होगी ?"
आत्मा की प्रामाणिकता आगम प्रणेता भगवान् श्री महावीर के उत्तरवर्ती जैन मनीषियों की भी प्रात्म सिद्धि के विषय में निर्णायक बुद्धि रही है । इस विषय में उन्होंने बड़े-बड़े ग्रन्थ रचे, अभूतपूर्व शास्त्रार्थ किए और अपनी अकाट्य युक्तियों से नास्तिकों को पराभूति दी। उस सारे इतिहास का अवतरण यहाँ असम्भव है, यह मानते हुए कुछ एक विशिष्ट ग्रन्थों की एतद्विषयक स्फुट सूक्तियाँ ही यहाँ समुद्धृत की जाती हैं जो मनन . योग्य हैं
१. “जीव का अस्तित्व जीव शब्द से ही सिद्ध है। कोई सार्थ संज्ञा असद् की बनती ही नहीं।"
२. “जीव है या नहीं यह सोचना मात्र ही जीव की सत्ता सिद्ध करता है। देवदत्त यह सोच सकता है, यह स्तम्भ है या पुरुष, अन्य अजीव पदार्थ नहीं।"
३. "घट के अवलोकन से घट के कर्ता कुलाल का बोध हमें हो जाता है, वैसे ही प्रतिनियत आकार वाले शरीर के अवलोकन से कर्मयुक्त साकार आत्मा का हमें स्वतः अवबोध हो जाता है।"
४. 'शरीर-स्थित जो यह सोचता है कि मैं नहीं हूँ वही तो जीव है। जीव के अतिरिक्त संशयकर्ता अन्य कोई नहीं है।"
नास्तिक तर्कों का खण्डन प्रास्तिक तार्किकों ने किस प्रकार किया यह पूर्व के कुछ प्रसंगों पर बताया ही जा चुका है। सारे वर्णन का सारांश यह है कि नास्तिक विचार भारतवर्ष में एक सर्वाङ्गीण दर्शन का रूप ले ही नहीं सके । इसलिये अत्युक्ति
१. संदिग्धेऽपि परे लोके त्याज्यमेवाशुभं बुधैः
यदि नास्ति ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः ___-प्राचा० टी०। २. सिद्धं जीवस्स अत्थितं, सहादेवाणुमीयए । नासपो भुवि भावस्स सद्दो हवइ केवलो ॥ जीवस्स एस धम्मो जा इही अत्थि नत्थि वा जीवो। खाणु मणुस्सारण गया जह इही देवदत्तस्स ।। अस्थि सरीर विहाया पइनिययागार याइ भावाप्रो । कुम्भस्स जह कुलालो सो भुत्तो कम्मजो गाग्रो । जो चितेइ सरीरे नत्थि अहं स एव होइ जीवोत्ति । बहु जीवम्मि असन्ते संसय उप्पायध्वो अन्नो ।।—विशेषावश्यक भाष्य ।
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