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________________ आत्म-अस्तित्व নত में उसका नाश'।" भारतीय दार्शनिकों ने वैकल्पिक रूप से नास्तिक दर्शन को छः दर्शनों में स्थान दिया है । नास्तिकों की दुर्बल युक्तियों के कारण जहाँ नैयायिक व वैशेषिक दो स्वतन्त्र दर्शन मान लिये जाते हैं वहाँ दुर्बल नास्तिक विचार प्रमुख दर्शनों में स्थान नहीं पा सकते । आस्तिक तार्किकों ने अपने युक्ति बल के सहारे भारतवर्ष में कभी आत्मा के अमर अस्तित्व में अविश्वास रखने वाले नास्तिक विचार को अग्रसर नहीं होने दिया। भारतवर्ष में तो सदा उसकी धज्जियां ही उड़ती रहीं।। नास्तिकों ने जब चैतन्य की उत्पत्ति में मद्य शक्ति का हेतु लगाया तो प्रास्तिकों की आवाज निकली 'नाऽसद् उत्पद्यते न सद् विनश्यति' अर्थात् असद् की उत्पत्ति नहीं होती और सद् का विनाश नहीं होता । मद्य शक्ति का उदाहरण अनुपयुक्त है । द्राक्षा, गुड़ आदि पदार्थों में संयोग से पूर्व भी मादकता विद्यमान है। संयोग से तो केवल वह उद्दीप्त होती है। इस प्रकार क्या तथाभिमत भूतों में चेतना का अस्तित्व वर्तमान है ? यदि है तब तो जड़वाद की कोई स्थिति ही नहीं रहती। फिर तो चेतना शाश्वत हो ही गई । जहाँ भूत है वहाँ चेतना है । यदि चेतना संयोगिक ही है तो मद्य शक्ति का उदाहरण अवास्तविक है, क्योंकि मद्य के उपादान में मादकता प्रत्यक्ष है। नास्तिकों ने कहा कि पुनर्जन्म में विश्वास करके यह संसार अदृष्ट की कल्पना में दृष्ट का परिहार करता है, यह उसकी मूढ़ता है। विवेकी मनुष्य को जो सुख प्रत्यक्ष मिल सकता है येनकेन प्रकारेण उसी को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। अप्रत्यक्ष, असत्य नहीं तो संदिग्ध तो अवश्य है ही। ग्रास्तिकों ने कहा कि नास्तिकता को दार्शनिकता की कसौटी पर न कस कर यदि जीवन व्यवहार की कसौटी पर भी करें तो भी वह निंद्य ही ठहरती है; क्योंकि पाप-भीति के अभाव में मनुष्य हिंसा, असत्य, दम्भ, शोषण आदि अमानवीय कृत्यों में सुखार्जन के हेतु प्रवृत्त होता है। इससे परलोक की बात तो दूर इस लोक की भी सामाजिक स्थिति पर कुठाराघात होता है । उन्होंने बताया--"परलोक यदि संदिग्ध है तो भी असद् अाचरण तो सत् पुरुषों के लिये त्याज्य ही है । यदि परलोक नहीं है तो इसमें क्या गया ? यदि परलोक हुआ तो असद् प्राचारी नास्तिक की क्या १. पिब खाद च चारुलोचने! यदतीतं वरगात्रि! तन्न ते । न हि भीरुगतं निवर्तते समुदायमात्रमिदं कलेवरम् ।। ८० पृथ्वी जलं तथा तेजो वायुभूतचतुष्टयम् ।। चैतन्यभूमिरेतेषां मानं त्वक्षजमेव हि ।। ८१ पृथ्व्यादिभूतसंहत्या तथा देहादिसंभयः ॥ -षड्दर्शनसमुच्चय । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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