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________________ ८६ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान को प्राप्त कर लेती है, जहाँ उसका चिन्मय स्वरूप प्रकट हो जाता है । __अात्मा संकोच विकोच स्वभाववाली होती है । उसके असंख्य प्रदेश होते हैं जो सूक्ष्म-से-सूक्ष्म स्थान में भी समा जाते हैं और फैलने पर सारे विश्व को भी भर सकते हैं । सकर्म आत्माएँ शरीर परिमाण आकाश का अवगाहन करती हैं। हाथी और चींटी को प्रात्मा समान है । अन्तर केवल इतना ही है कि वह हाथी के शरीर में व्याप्त है और वह चींटी के शरीर में । मृत्यु के बाद हाथी की आत्मा यदि चींटी की योनि में आती है तो संकोच स्वभाव से उसके शरीर में पूरी-पूरी समा जाती है । उसका कोई अंश बाकी नहीं रह जाता। इसी तरह जब चींटी की आत्मा हाथी का भव धारण करती है तो उसकी आत्मा हाथी के शरीर में पूरी तरह व्याप्त हो जाती है । शरीर कहीं खाली नहीं रहता। जैन धर्म की एक विशिष्ट बात यह है कि वह अनन्त आत्माएँ मानता है। प्रत्येक प्रात्मा कृत कर्मों का नाश कर परमात्मा बन सकती है। समस्त आत्माएँ अपने आप में स्वतन्त्र हैं। वे किसी अखण्ड सत्ता की अंश रूप नहीं है।' नास्तिक दर्शन भारतवर्ष में अन्य दर्शनों की तरह नास्तिक दर्शन भी प्राचीन काल से चला आ रहा है। इसके प्रवर्तक प्राचार्य बृहस्पति माने जाते हैं। नास्तिक दर्शन को लोकायतिक व चार्वाक दर्शन भी कहा जाता है । प्रात्ता के विषय में उसका सिद्धान्त आस्तिक दर्शनों से सर्वथा प्रतिकूल है । संक्षेप में नास्तिक विचारधारा यह है-'प्रात्मा कोई मौलिक पदार्थ नहीं है, अतः उसकी मुक्ति भी नहीं है और आत्मा की मौलिकता के अभाव में धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप, इन सबका भी अभाव है।" 'लोक इतना ही है जितना इन्द्रियगोचर है।" "खामो, पीयो । जो अतीत के गर्भ में चला गया वह तुम्हारा नहीं है । जो मर गया वह वापिस नहीं आयेगा। यह कलेवर केवल भौतिक समुदाय मात्र है। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि ये चार भूत चैतन्य भूमि हैं (अाकाश को मिलाकर पाँच भूत भी माने जाते हैं) । प्रमाण केवल प्रत्यक्ष ही है । पृथ्वी, जल, वायु अग्नि, आदि भूत चतुष्टय के संयोग से चैतन्य की निष्पत्ति होती है और उनके वियोग १. लोकायिता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निर्वृतिः । धर्माधर्मों न विद्यते न फलं पुण्यपापयोः । २.. एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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