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प्रात्म-अस्तित्व
नीय प्रसंग है, में सारभूत विधि से मिलता है । वहाँ शरीर को नाव कहा है, जीव को नाविक कहा है और संसार को समुद्र बतलाया है। इसी संसार समुद्र को महर्षिजन पार करते हैं।"
कर्म मुक्त प्रात्मा कैसे संस्थान करती है इस विषय में बताया गया है—"जब आत्मा कर्मों का क्षय कर सर्वथा मल रहित होकर सिद्धि को पा लेती है तब लोक के अग्न भाग पर स्थित होकर वह शाश्वत सिद्ध हो जाती है।"
जैनागमों में अन्य आर्ष ग्रन्थों की तरह आत्मा के विषय में स्फुट व्याख्या ही नहीं मिलती अपितु एक परिष्कृत वाद भी मिलता है । "जो प्रात्मा है वही विज्ञाता है, जो विज्ञाता है वही आत्मा है और जिसके द्वारा जाना जाता है वही आत्मा है, जो इसे स्वीकार करता है वह पण्डित है वह आत्मवादी है।"
आत्मा व जड़ पदार्थों का विसम्बन्ध बताते हुए कहा गया है-"मेरी अपनी ज्ञान दर्शन संयुक्त शाश्वत आत्मा ही धर्मात्मा है, शेष सारे संयोग बात्य भाव है । एक आत्मा का ही मरण है और एक आत्मा की ही सिद्धि है।
जैन दर्शनाभिमत आत्मा को यदि हम थोड़े में कहना चाहें तो इस प्रकार कह सकते हैं—प्रात्मा एक शाश्वत स्वतन्त्र द्रव्य है। उपादान के अभाव में इसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती। जिसकी उत्पत्ति नहीं है उसका विनाश भी नहीं है। इसका मुख्य लक्षण ज्ञान है । वह किसी भी योनि में सर्वथा ज्ञान व अनुभूति शून्य नहीं होती। ज्ञान एक ऐसा लक्षण है जो इसे जड़ पदार्थों से सर्वथा पृथक् कर देता है । अपने ही अर्जित कर्मों के अनुसार वह जन्म और मृत्यु की परम्परा में चलती हुई नाना योनियों में वास करती है। अपने ही पुरुषार्थ से वह कर्म परम्परा का उच्छेद कर सिद्धावस्था
१. सरीरमाहु नावृत्ति जीवो वच्चइ नाबियो । ___ संसारो अण्गावो वुत्तो जं तरन्ति महेषिणो।' २. जया कम्म खवित्ताणं सिद्धिं गच्छई नीरो । तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो हवई सासप्रो।
-दशवै० अ० ४ गा० १६ । ३. जे पाया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। __ जेण विजाणाति से आया तं पडुच्च पडिसंखाए । से पायावादी।
-आचारांग श्रु० १। ४. एगो मे सासो अप्पा नाण दंसण संजुभो। - सेसा मे वाहिरा भावा सव्वे संजोग लक्खणा। ५. एगस्स चेव मरणं एगो सिज्जनि नीरो।
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