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________________ ८४ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान से पाया हूँ ? मेरा भवान्तर होगा या नहीं ? मैं कौन हूँ। यहाँ से कहाँ जाऊँगा'।" पाँचवें मूल आगम भगवती में प्रात्मा के स्वरूप को अत्यन्त स्पष्ट कर दिया गया है । वहाँ जीव को अनादि, अनिधन, अविनाशी, अक्षय, ध्रुव और नित्य बताया गया है। - एक प्रसंग में भगवान् श्री महावीर अपने शिष्य गौतम मुनि के प्रश्न का उत्तर देते हुए जीव को (आत्मा को) अशाश्वत भी बताते हैं । वह प्रश्नोत्तर इस प्रकार है "भगवन् ! जीव नित्य (शाश्वत) है या अनित्य ?" "गौतम ! जीव नित्य भी है अनित्य भी।" "भगवन् ! यह कैसे कहा गया कि जीव नित्य भी है अनित्य भी ?" "गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है भाव की अपेक्षा से अनित्य ।" भगवान् श्री महावीर किसी विषय में एक.न्त पक्षी नहीं थे। वे हर वस्तु का निरूपण आपेक्षिक दृष्टि से करते थे। साधारणतया यह स्पष्ट विरोधाभास लगता है कि जीव शाश्वत भी है अशाश्वत भी; किन्तु जब वे अपेक्षाओं का उल्लेख कर देते है तब वस्तु स्थिति प्रकाश में आ जाती है। द्रव्यतः का तात्पर्य है, जीव अपने द्रव्यत्व अर्थात् जीवत्व से नित्य है । उसका जीवत्व भूत में सदा था, वर्तमान में है और भविष्य में सदा रहेगा। __भावतः का तात्पर्य है, जीव का स्वरूप (पर्याय) हमेशा बदलता रहेगा । एक ही जीव नाना योनियों को और एक ही योनि में बचपन तारुण्य, वार्द्धक्य आदि नाना स्थितियों को अपनाता व छोड़ता रहेगा। आत्मा शाश्वत है। जन्म मरणशील संसार के उस पार पहुँचना उसका ध्येय है। इस तथ्य का उल्लेख केशी गोतम सम्वाद जो कि उत्तराध्ययन आगम का एक उल्लेख १. इहमेगेसिं नो सन्ना हवइ तंजहा, कम्हारो दिशाम्रो वा प्रागयो अहःसि ? अत्थि में पाया अववाइए वा नत्यि में आया अववाइए ? के वा अहंमसि ? के वा इनो चुइनो पेच्चा भविस्सामि । ___-प्राचारांग १-१॥ २. जीवो अणाइ अनिधनो अविणासी अक्खनो धुनो णिच्चं। -भगवती। ३. जीवाणं भन्ते किं सासया असासया ? गोयमा ! जीवा सिय सासया, सिय असासया। केण?णं भन्ते ! जीवा सिय सासया सिय असासया ? गोयमा ! दव्वट्ठियाए सासया भावट्ठियाने असासया । -भगवती शतक ७ उ० २. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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