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प्रात्म-अस्तित्व
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जैन आगमों में नास्तिक दर्शन का उल्लेख व उसका निराकरण भी यथा प्रसंग किया गया है । सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन में अन्य मतों का उल्लेख करते हुए नास्तिकों के बारे में कहा गया है-"कुछ लोग कहते हैं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पाँच महाभूत हैं । इन पाँच महाभूतों के योग से प्रात्मा उत्पन्न होती है और इनके विनाश व वियोग से आत्मा भी नष्ट हो जाती है।"
शीलांकाचार्य इन्हीं गाथाओं की व्याख्या करते हुए उवत मान्यता का निराकरण इस प्रकार करते हैं—"भूत समुदाय स्वतन्त्र धर्मा है । उसका चैतन्य गुण नहीं है, क्यों कि पृथ्वी आदि भूतों के अन्य पृथक्-पृथक् गुण हैं । जो अन्य-अन्य गुणवाले पदार्थों का समुदाय है उससे किसी अपूर्व गुण की उत्पत्ति नहीं होती, जैसे रूक्ष बालकणों के समुदाय से स्निग्ध तैल की उत्पत्ति नहीं हो सकती। घट और पट (वस्त्र) के समुदाय से स्तम्भ की उत्पत्ति नहीं होती, इसी प्रकार चैतन्य आत्मा का ही गुण हो सकता है भूतों का नहीं ।" इसी विषय पर चूर्णिकार की उक्ति को सम्मुख रखते हुए शीलांका. चार्य दूसरी युक्ति देते हैं—“पाँच भिन्न गुणोंवाले भूतों के संयोग से चेतना गुण उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि यह प्रत्यक्ष है कि पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय का ही ज्ञान करती हैं । एक द्वारा जाने हुए विषय को दूसरी इन्द्रिय नहीं जानती । फलित यह होता है कि पाँचों इन्द्रियों द्वारा जाने हुए विषय की समष्टि रूप से अनुभूति करने वाला द्रव्य कोई अवश्य है और वह आत्मा है ।"
प्राचारांग सूत्र का जो कि जैन धर्म के ११ मूल आगमों में प्रथम आगम है, ऐतिहासिक दृष्टि से भी जो सब आगमों से प्राचीन माना जाता है, प्रारम्भ आत्मविवक्षा से ही होता है। वहाँ कहाँ गया है-'अनेक व्यक्ति यह नहीं जानते, मैं कहाँ
१. सन्ति पंच महब्भूया, इहमेगेसि माहिया।
पुढवी आउ तेउ वा वाउ अागास पंवमा ।। ७ एए पंच महब्भूया तेब्भो एगोत्ति प्राहिया।
अहतेसि विरणासेणं विणासो होइ देहिणो ।। ८
२. भूतसमुदायः स्वातन्त्र्ये सति धर्मित्वे नोपादीयते न तस्य चेतनाख्योगुणोऽ स्तीति साध्यो धर्मः, पृथिव्यादीनामन्यगुणत्वात् । यो योऽन्य गुणानां समुदायस्तत्राऽपूर्वगुणोत्पत्तिर्न भवतीति । यथा सिकतासमुदाये स्निग्धगुणस्य तैलस्य नोत्पत्तिरिति, घटपटसमुदाये वा न स्तम्भादयो विभावा इति, दृश्यते च कार्यचैतन्यं तदात्म गुणो भविष्यति न भूतानामिति ।
३. पंचण्हं संयोगे अण्ण गुणाणं न चेयणाई गुणो होगी।
पंचिन्दिय ठाणाणं सा अण्ण मुरिणयं मुणई अण्णो ।
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