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जैन दर्शन और प्राधुनिक विज्ञान को शाश्वत मौलिक द्रव्य बताया गया है । बुद्ध ने जिन प्रश्नों को अव्याकृत कहकर छोड़ दिया, उन्हीं प्रश्नों का समाधान भगवान् महावीर ने सीधे-सादे शब्दों में कर दिया । शब्द सीधे किन्तु तत्त्व गम्भीर था। जीव अन्तसहित है या अन्तरहित इसका उत्तर देते हुए उन्होंने बताया
द्रव्य से-एक जीव सान्त। . क्षेत्र से---असंख्य प्रदेशावगाही सान्त । काल से----था, है और रहेगा । नित्य है तथा अन्तरहित है।
भाव से---ज्ञान, दर्शन, चरित्र गुरुलधु, अगुरुलघु पर्याय की अपेक्षा अनन्त व अन्तरहित है।
जीवन में सुख और दुःख क्यों होते हैं, इसका समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने बताया- सुप्रयुक्त और दुष्प्रयुक्त प्रात्मा अपने आप ही सुख और दुःख का कर्ता व विकर्ता है और अपने आप ही मित्र व अपने आप ही अमित्र है।
उनके उपदेशों में इह और पर दोनों लोकों की चर्चा रही है। इन्होंने दोनों लोकों के सुख का मार्ग बताया है, "मात्मा का दमन करने वाला दोनों लोकों में सखी होता है ।" उन्होंने प्रात्मा के लक्षण बतलाये-"ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप, वीर्य (शक्ति), उपयोग ये जीव के लक्षण हैं।"
१. जेविय ते खंदया ! जाव सपंते जीवे, अगते जीवे,
तस्सवियरणं अयनढे हवं एवं खलु जाव दवयोणं एगेजीवे सते, खेतप्रोणं जीवे असंखेज्जपएसिए असंखेज्ज पएसो गाढे अत्थि पुरण से अन्ते, कालोणं जीवे न कदाई, न पासि, णिच्चे; नत्थि पुरण से अन्ते, भावप्रोणं जीवे अणंता रणाणपज्जवा, अणंता दंसणपज्जवा, अणंता चरित्तपज्जवा, अणंता गुरुयलहुन पज्जवा, अणंतागुख्यलहुअपज्जवा, नत्थि पुण से अन्ते ।
-भगवती श०२ उ० १ । . २. अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाण य दुहाण य । आप्पा मित्तममित्तं च सुपट्ठिय दुपट्टि यो ।
-उत्तराध्ययन १। ३. अप्पादतोसुही होइ असिलोए परत्थय ।
-उत्तराध्ययन १-५५ । ४. नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा। " वीरियं उवयोगोय एवं जीवस्स लक्खरणं ।।
-उत्तराध्ययन २८-११ ।
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