SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रात्म-अस्तित्व आदि को नहीं मानने वाला नास्तिक नहीं है। बौद्ध-दर्शन की आस्तिक भावना का पुष्ट प्रमाण हमें 'दीर्घ निकाय' में मिलता है। सेतव्या नगरी के राजा पग्रेसी जो नितान्त नास्तिक था, स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप, मोक्ष प्रादि में जिसका तनिक भी विश्वास नहीं था और जो अत्यन्त क्रूरकर्मी था, उसने नास्तिकता के बीसों प्रश्न कश्यपकुमार श्रमण (बुद्ध के शिष्य) के सामने रखे और कश्यपकुमार श्रमण ने अपनी प्रबल युक्तियों से उन समस्त नास्तिकतात्मक प्रश्नों का जोरदार खण्डन और आस्तिकता का असाधारण मण्डन किया। स्वयं बुद्ध के आचरण व उपदेश भी अहिंसा प्रधान थे। मोक्ष प्राप्ति उनके जीवन का परम ध्येय था । वे स्वयं सन्यस्त जीवन में थे तथा दूसरों को भी साधु जीवन में आने का उपदेश करते थे। नास्तिकों की व अपुनर्जन्मवादियों की भावना में श्रमण धर्म पर चलने की गन्ध ही नहीं पा सकती। बुद्ध के उपदेशों में भी सर्वत्र आस्तिकता का समर्थन मिलता है। उनका उपदेश था--''जो हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, पर-स्त्री सेवन करता है, मद्यपान करता है, वह अपनी ही जड़ खोदता है।" "किसी प्रकार के पाप का न करना, श्रेय को प्राप्त करना और अपनी आत्मा की शद्धि करना, यही बुद्ध की प्राज्ञा है ।" जैन दृष्टि मौलिकता की दृष्टि से यह माना जा सकता है कि जैन आगमों में प्रात्मा का शाश्वत भाव जितना स्पष्ट मिलता है उतना अन्य मूल ग्रन्थों में नहीं। भगवान् श्री महावीर के प्रवचनों में प्रात्मा का सर्वाङ्गीण स्वरूप सदा ही निश्चित और सुस्पष्ट रहा है। लोक क्या है इस पर बोलते हुए वे बताते हैं-"धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव ये छ: मूल द्रव्य हैं और इन्हीं की समष्टि लोक है।" यहाँ आत्मा १. विशेष विवरण दीर्घ निकाय २-१० हिन्दी-अनुवाद पृ० १६६ से २११ तक। २. यो पारगमतिपातेति मुसावादं च भासति । लोके अदिन्नं पादियति, परदारं च गच्छति ।। सराभेरयपानञ्च यो नरो अनुयुञ्जति । इथेव मे सो लोगम्मि मूलं खनति अत्तनो ॥ -धम्मपद १८-१२-१३ । ३. सब पापस्स अकरणं कुसलस्स उपसंपदा । ___ सचित्त परियोदयनं एतं बुद्धानुशासनं । 'धम्मपद १४-५ । ४. धम्मो अधम्मो पागासो कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगोति पन्नत्तो जिणेहिं वरदं सिहि ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र २८ । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy