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जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान
यहाँ आत्मा विषयक बौद्धमत का प्रतिपादन बड़े ही सुन्दर ढंग से किया गया है । दृष्टांत भी नितान्त रोचक है ।
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पुनर्जन्म
बुद्ध के कथनानुसार यदि श्रात्मा नित्य समुदाय ( संघात ) मात्र ही है तो पुनर्जन्म किसका होता है ? बुद्ध पुनर्जन्म और कर्म फल में सर्वथा विश्वास रखते हैं । एक बार पैर में काँटा बिंध जाने पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा - "भिक्षुत्रों ! इस जन्म से एकानवे जन्म पूर्व मेरी शक्ति ( शस्त्र - विशेष ) से एक पुरुष की हत्या हुई थी । उसी कर्मफल के कारण मेरा पैर काँटे से बिंध गया है ।"
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एक चोर कर्मवाद की यह दृढ़ निष्ठा और दूसरी ओर आत्मा को क्षरणस्थायी मानकर चलना अनायास एक उलझन पैदा कर देता है । बौद्ध दीपशिखा के दृष्टान्त से इस स्थिति को स्पष्ट करते हैं । दीया रात भर जलता है । साधारण व्यवहार में यही माना जाता है कि एक ही दीप रातभर प्रकाश करता रहा है, पर स्थिति कुछ भिन्न है । प्रथम पहर में जलने वाली लौ भिन्न थी और दूसरे पहर में जलने वाली भिन्न । यही नहीं प्रथम क्षण और दूसरे क्षरण की लौ भी भिन्न है, यह तनिक चिन्तन से अनुभव में आता है । तेल प्रवाह के रूप में जलता । लौ उसके जलने का परिणाम है । वह प्रतिक्षरण नई पैदा हो रही है । उसका बाह्य रूप ज्यों का त्यों स्थितिशील पदार्थ के रूप में दीखता रहता है । आत्मा के विषय में भी बौद्ध दर्शन के अनुसार ठीक यही स्थिति चरितार्थ होती है । मिलिन्द प्रश्न में बताया गया है कि किसी वस्तु के अस्तित्व के विषय में एक अवस्था उत्पन्न होती है, एक लय होती है; और इस तरह प्रवाह जारी रहता है । प्रवाह की दो अवस्थाओं में एक क्षरण का भी अन्तर नहीं होता क्योंकि एक के लय होते ही दूसरी उठ खड़ी होती है । इसी कारण पुनर्जन्म के समय न वही जीव रहता है न दूसरा ही हो जाता है । एक जन्म के अन्त में विज्ञान के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है ।
पूर्णास्तिकता
बौद्ध दर्शन का आत्मा विषयक मंतव्य विविध प्रकार से स्पष्ट किया जा चुका है । उपसंहार करते हुए यह और बताया जाता है कि बौद्ध दर्शन प्रात्मा का स्वरूप किस भाँति मानता है । यह निश्चित है कि वह पुनर्जन्म, कर्मवाद, स्वर्ग, नरक, मोक्ष
१ . इत एकनवतीकल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः ।
तेन कर्म विपाकेन पादे विद्धोस्मि भिक्षवः ॥ षडदर्शन समुच्चय टीका ।
२. हिन्दी अनुवाद पृ० ४६-५० ।
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