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________________ ७४ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान दूसरी बार पूछा, तीसरी बार पूछा तो पिता ने झुंझलाकर कहा-"मृत्यु को।" सुकुमार बच्चा क्रूर वाक्य को सुनते ही विह्वल हो गया । शरीर बच्चे का था पर आत्मा पुरानी थी । संसार भ्रमण की उसकी अवधि समाप्त हो चुकी थी। वह मृत्यु से छुटकारा पाने यम के घर पहुँचा । यमराज घर में नहीं थे । वह दरवाजे पर तीन दिन तक निराहार बैठा रहा । यमराज पाये। भूखे-प्यासे बालक पर दया उमड़ी। उन्होंने कहा-"तीन दिन तक मेरा अतिथि होकर तू मेरे घर पर भूखा बैठा रहा, मुझे ऋणी किया, इसलिये तीन वर माँग, जो कहेगा वह दंगा।" बालक ने दो के बाद तीसरा वर मांगते हुए कहा, "मृत्यु के पश्चात् कुछ कहते हैं मनुष्य की आत्मा का अस्तित्व है । कुछ कहते हैं नहीं, सही तत्त्व क्या है यह आप मुझे बतायेंयही मेरा तीसरा वर है।'' यमराज ने मनुष्य लोक से इतर समस्त लोकों का अवबोध उसे दिया और बताया कि इस लोक को छोड़कर जीव अन्य लोक में चला जाता है । वह यहीं नष्ट नहीं हो जाता । यह पूछने पर कि क्या वहाँ मृत्यु नहीं है ? यमराज ने बताया कि मुक्ति के अतिरिक्त मृत्यु का भय सर्वत्र है । नचिकेता ने कहा कि मुझे तो वही विधि बताइये जिससे अमरता प्राप्त हो और किसी भी अनात्म-विद्या से मेरा कोई तात्पर्य नहीं है। यम ने उसे भुलाने के लिये बहुत से प्रलोभन दिये और कहा- 'तू इस विद्या के लिये आग्रह मत कर, इसका बोध होना कोई साधारण बात नहीं है । देवता भी इस विषय में संदेहशील रहे हैं ।" बालक अपने हठ पर दृढ़ रहा। वह एक ही बात कहता गया---'मुझे अमरता चाहिये ।' यम को प्रसन्नता हुई और उन्होंने आत्मसिद्धि का समस्त रहस्य उसे बताया । नचिकेता ने यमराज से आत्मविद्या तथा समग्र योग विधि पाकर ब्रह्म का अनुभव किया, राग द्वेष के मल से उसका चित्त शुद्ध हुआ और वह मृत्यु के पास पहुँचा । इसी प्रकार अन्य भी जो आत्म तत्त्व को पाकर तथा प्रकार से पाचरण करेंगे वे अमरता को प्राप्त करेंगे । १. “येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये, अस्तीत्येके नायमस्तीति चैके। एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः ॥" -कठोपनिषत् १-२० । २. "देवरत्रापि विचिकित्सितं पुरा नहि सुविज्ञेयं अणुरेष धर्मः ।" --कठोपनिषत् १-२१ । ३. मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लब्ध्वा, विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम् । ब्रह्मप्राप्तौ विरजोऽभूद्विमृत्युरन्योऽप्येवं योविदध्यात्ममेव । - कठोपनिषत् ६-१८ । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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