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प्रात्म-अस्तित्व मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और मझे कहाँ जाना है, जीवन के ये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और सर्वाधिक जटिल प्रश्न है। इन्हीं प्रश्नों की उर्वर भूमिका पर ही संसार के सारे दर्शन खड़े हुए हैं। विज्ञान भी जब 'किं तत्त्वं' की जिज्ञासा लेकर प्रकृति के अखाड़े में उतरता है तो सबसे पहले इन्हीं प्रश्नों के साथ मल्ल प्रतिमल्ल विधि से उसे अड़ जाना पड़ता है। यदि पूछा जाये कि ये प्रश्न कब से हैं तो इसका एकमात्र उत्तर होगा कि जब से सृष्टि है। यदि पूछा जाय, इसका उत्तर क्या है तो दो प्रकार के समाधान प्रस्तुत होंगे। (१) तुम एक शाश्वत इकाई, कृत कर्मों के अनुसार नाना योनियों में भ्रमण करने वाले, चैतन्य गुणोपेत एक स्वतन्त्र सत्ता हो, निःश्रेयस को पा लेना तुम्हारा लक्ष्य है। (२) वर्तमान जीवन के पूर्व तुम न कुछ थे और न इसके बाद ही कुछ रहोगे। दोनों ही निर्णयों में दिन-रात का अन्तर है। असीम कालीन मीमांसा के पश्चात् भी विश्व जीवन के इस अनन्य विषय पर एकमत नहीं हो सका।
आत्मा की स्थिति क्या है, यह समझे बिना जीवन का कोई ध्येय ही नहीं बन सकता। प्रस्तुत प्रसंग में हमें यही विचार करना है कि दार्शनिकों ने आत्मा के प्रश्न को कितना महत्त्वपूर्ण माना, इस विषय में उनकी क्या निष्ठा रही और उस निष्ठा के आधारभूत तर्क क्या थे तथा विज्ञान का आत्म-गवेषणा सम्बन्धी इतिहास क्या है, बीसवीं शताब्दी की नई थियोरियाँ अात्मवाद की दिशा में क्या नया तथ्य उपस्थित करती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हमें यह देखना है कि आत्मा के विषय में पूर्व पश्चिम की ओर झुकता है या पश्चिम पूर्व की ओर; दर्शन विज्ञान की राह पकड़ता है या विज्ञान दर्शन की।
वैदिक दृष्टि
नचिकेता और प्रात्मविद्या बालक नचिकेता के पिता ऋषि वाजश्रवस् ने प्रण किया था कि मैं अपनी सब सम्पत्ति दान कर दूंगा और उन्होंने ऐसा ही किया । जब याचक एक-एक चीज उठाकर ले जाने लगे तब नचिकेता ने सोचा, पिता मुझे भी किसी को देंगे। वह पिता के पास गया और पूछने लगा, "पिता ! मुझे आप किसे देंगे ?" पिता मौन रहा । नचिकेता ने
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