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________________ प्रात्म-अस्तित्व ७५ मैत्रेयी याज्ञवल्क्य संसार से पराङ्मुख होकर अपनी पत्नी मैत्रेयी को धन-दौलत सम्भलाने लगे। उसने पूछा--- "क्या मैं इस धन-सामग्री से अमर हो जाऊँगी ?" ऋषि ने कहा, "नहीं।" तब उसने कहा-"जिससे मैं अमर नहीं बनती उसे लेकर क्या करूँ तब याज्ञवल्क्य ने प्रात्म-विद्या का उसे ज्ञान दिया। सनत्कुमार और नारद वैदिक परम्परा में आत्मविद्या का क्या स्थान है, यह समझने के लिए नारद और सनत्कुमार का पाख्यान बहुत उपयोगी है। ___ नारद सनत्कुमार के पास गये और उन्होंने कहा कि कुछ शिक्षा दीजिये । सनत्कुमार बोले-“पहले क्या पढ़े हो, यह बतायो ।' नारद ने कहा--"ऋक्, यजु, साम, अथर्व ये चारों वेद, पंचम वेद रूपी इतिहास पुराण, वेद-व्याकरण, श्राद्ध-कल्प, गणित, उत्पात-ज्ञान, शकुनशास्त्र, दिव्यशक्तिशास्त्र, गुप्तधन-गवेषण-विद्या, आकरशास्त्र, तर्कशास्त्र, शास्त्रार्थविद्या, युक्तिशास्त्र, नीतिशास्त्र, राजशास्त्र, देवविद्या, शब्दकोष, शिक्षाकल्प, छन्दजाति, भूतविद्या, धनुर्वेद, समस्त युद्धशास्त्र, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या, जन्तुशास्त्र, गन्धर्व विद्या, चतुःषप्टिकला, गीत, वाद्य, नृत्य, शिल्प, पाकविज्ञान यह सब मैंने पढ़ा, पर मुझे ऐसा लगता है कि मैं केवल शब्दों तक ही पहुँचा, अन्तर्भूत आत्मस्वरूप को नहीं पहचान सका। मैंने सुना है अात्मस्वरूप को जान लेने वाला शोकमुक्त हो जाता है । मैं शोकग्रस्त हूँ, मुझे आत्मज्ञान देकर शोकमुक्त करिये ।" अात्म विज्ञान के सम्बन्ध में यही बात मनु कहते हैं- "सब ज्ञानों में श्रेष्ठ प्रात्म-ज्ञान है, वही सब विद्यानों में अगली विद्या है, जिससे मनुष्य को अमृत (मोक्ष) मिलता है । गीता का यह कथन वैदिक आस्तिक भावना को पूर्णतः स्पष्ट कर देता है— जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को उतारकर नवीन वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार वह (आत्मा) जीर्ण शरीरों को छोड़ती है और नये शरीरों को प्राप्त करती है । “प्रात्मा को शस्त्र नहीं छेद सकते, न उसे अग्नि ही जला सकती है । न उस पर १. येनाहं न अमृतां स्यां किमहं तेन कुर्याम् ? -वृहदारण्यकोपनिषत् । २. छान्दोग्य उपनिषद्, प्रपाठक ७ खण्ड १ । ३. सर्वेषामपि चैतेषा, मात्मज्ञानं परं स्मृतम् । तद्धययं सर्वविद्यानां, प्राप्यते ह्यमृतं ततः ॥ -मनु० अ० १२ । ४. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । . तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही । -गीता अ० २ श्लोक २२॥ Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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