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________________ ४५ परमाणुवाद एक परमाणु में एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श होते हैं । किन्तु किसी भी स्थूल स्कन्ध में पाँच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और ग्राठ स्पर्श मिलेंगे । स्पर्शो की अपेक्षा से स्कन्धों के दो भेद हो जाते हैं-चतुःस्पर्शी स्कन्ध और प्रष्ट स्पर्शी स्कन्ध | सूक्ष्म से सूक्ष्म पुद्गल जाति चतुःस्पर्शी स्कन्धात्मक है । चतुःस्पर्शी पुद्गलों में उक्त ग्राठ स्पर्शो में से शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ये चार स्पर्श मिलेंगे । अपेक्षा विशेष से यह भी कहा जा सकता है उक्त चार स्पर्श ही पुद्गल के मौलिक स्पर्श हैं । परमाणु में उक्त चारों में से ही कोई दो स्पर्श मिलेंगे । कोई परमाणु शीत या उष्ण होगा या स्निग्ध और रूक्ष होगा । मृदु, कठिन, गुरु, लघु इन चार स्पर्शो में से किसी भी अकेले परमाणु में कोई स्पर्श नहीं मिलता। परिणाम यह हुआ कि ये चार स्पर्श मौलिक न होकर संयोगज है। इन चार स्पर्शो के उत्पाद की कोई व्यवस्थित प्रक्रिया मिल नहीं रही है परन्तु तथा प्रकार की नियामक प्रक्रिया होनी अवश्य चाहिए। नहीं तो क्या कारण हो सकता है कि असंख्य अनन्त परमाणुओं के संयोग से बने हुए स्कन्धों में कुछ चतुःस्पर्शी ही रह जाते हैं और कुछ प्रष्ट स्पर्शी हो जाते हैं । यह एक विशेष बात है कि जैन दार्शनिकों ने गुरुत्व (भारीपन ) और लघुत्व ( हल्केपन) को भी मौलिक स्वभाव नहीं माना है । वह भी विभिन्न परमाणुत्रों का सयोगज परिगाम है | खोज की दृष्टि से यह बड़े महत्त्व का विषय है— स्थूलत्व से सूक्ष्मत्व की ओर जाते हुए पुद्गल भार आदि गुणों से रहित हो जाते हैं और सक्ष्मत्व से स्थूलत्व को मोर जाते हुए उसमें गुरुत्व मृदुत्व प्रादि योग्यतायें उत्पन्न हो जाती है । श्रादि वैत्रासिक बन्ध बिजली, उल्का, इन्द्रधनुष आदि पदार्थों के आधुनिक विज्ञान में बहुत सारे अन्वेषण हो चुके हैं । जैन दर्शन में भी इन पदार्थों के विषय में सक्षिप्त किन्तु महत्त्व - पूर्ण विवेचन मिलता है । विभिन्न परमाणुओं के संश्लेष को वहाँ बन्ध' कहा गया है । उस बन्ध के प्रमुख दो भेद हैं- प्रायोगिक और वैनसिक । प्रायोगिक जीव प्रयत्नजन्य होता है और वह सादि है । वैस्रसिक का अर्थ है - स्वाभाविक, जिस बन्ध में व्यक्ति विशेष के प्रयत्न की अपेक्षा न रहती हो । इसके दो प्रकार हैं—सादि वैस्रसिक और अनादि वैसिक । सादि वैस्रमिक बन्ध वह है जो बनता है, बिगड़ता है और उसके १. अनन्तानन्त परमाणु समुदय निष्पाद्यपि कश्चित् चाक्षुषः कश्चिदचाक्षुषः । - सर्वार्थ सिद्धि | २. संश्लेषः -बन्धः, अयमपि प्रायोगिक : सादिः खसिकस्तु सादिरनादिश्च ॥ - श्री जैन सिद्धान्त दीपिका प्रकाश १ सूत्र १२ का टीका । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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