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________________ परमाणुवाद प्रति समय चालू है फिर भी परमाणुत्व धर्म उनका सदा सुरक्षित है । एक भी परमाणु न कभी नया बनता है और न कभी किसी परमाणु का विनाश होता है । वे इस परिवर्तनशील विश्व के शाश्वत सदस्य हैं । लकड़ी जल गई, कुछ द्रव्य कोयला बना, कुछ राख और कुछ धाँ । परमाणु ज्यों के त्यों रहे । अन्तर केवल उनकी पर्यायों का पड़ा। पहले वे काष्ठ के रूप में थे, और अब दूसरे नाना द्रव्यों के रूप में । पर्यायों का स्थूल परिवर्तन कादाचित्क है, पर सूक्ष्म परिवर्तन प्रति समय । लकड़ी जलकर राख हुई यह स्थूल परिवर्तन हुआ । वही लकड़ी किसी सुरक्षित स्थान में सुस्थिर पड़ी है तो भी उसमें किसी भी समय परिवर्तन तो चालू ही है। वह परिवर्तन पार्थिव नेत्रों से सीधा देखने में नहीं आता पर एक लम्बी अवधि के पश्चात् जब वही काष्ट द्रव्य जीर्ण शीर्ण होकर मिट्टी के रूप में परिणत हो जाता है, तब हम सहज ही समझ लेते हैं उस काष्ठ द्रव्य में पूर्वाकार का परित्याग और उत्तराकार का आदानरूप परिवर्तन चालू ही था । यह काष्ठ अादि से अन्त तक किसी एक ही क्षण में पूर्व पर्याय से उत्तर पर्याय में नहीं आया है। यह परिवर्तन कैसे और क्यों होता है ? ठोस से ठोस वस्तु चाहे वह लोहा हो या शीशा प्रति समय संख्य, असंख्य व अनन्त परमाणु उससे क्षरित हो रहे हैं और नये परमाणु व सूक्ष्म स्कन्ध उसमें प्रवेश पा रहे हैं । कठोर द्रव्यों में भी जो ऊपर से स्थिरता लगती है वह उनकी अन्तरंग स्थिति में नहीं है । उनके घरेलू वातावरण में तो परमाणुओं की चहल-पहल और उछल-कूद बनी ही रहती है । जैसे कि गोम्मटसार' जीव कांड में बताया गया है--पुद्गल द्रव्य में संख्यात, असंख्यात, नन्त परमाणु चलित होते रहते हैं। पुद्गलों के संस्थान प्राकृति को संस्थान कहते हैं । वह संस्थान दो प्रकार का होता है-इत्थंस्थ और अनित्थंस्थ । अकलंक देव ने तत्त्वार्थ राजवार्तिक में इन्हीं दो शब्दों को इत्थं और अनित्थं संज्ञा से अभिहित किया है । नियत आकार वाले पुद्गल को इत्थंस्थ कहा जाता है। १. पुद्गल द्रव्ये प्रणवः संख्यातादयो भवन्ति चलिता हि । गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५६३ । २. आकृति:--संस्थानम्, इत्थंस्थम् अनित्थंस्थम् । ३. संस्थानं द्विवेत्थं लक्षणं अनित्थलक्षणं च। तत्त्वार्थ राजवातिक अ० ५।२४ । ४. तच्च नियताकारं इत्थंस्थम् । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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