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जैन दर्शन और श्राधुनिक विज्ञान
हालांकि प्राचीन प्राचार्यों ने उद्योत, प्रातप आदि नाना भेद, प्रभेदों से पुद्गल द्रव्य की विस्तृत परिभाषा की है तथापि उक्त सारे भेद प्रभेदों को हम दो भेदों में ले सकते हैं | उद्योत, प्रातप, प्रभा आदि प्रकाश के ही भेद हैं और छाया अन्धकार में अन्तर्निहित हो सकती है ।
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उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य
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जैन-दर्शनकारों ने कहा- द्रव्य ' वह है जो गुरण और पर्यायों का प्राश्रय है । वस्तु का सहभावी धर्म गुण । उसका सम्बन्ध द्रव्यत्व के साथ है । वह उस द्रव्य के साथ था, है और रहेगा । वस्तु का जो क्षणिक परिवर्तन स्वभाव है वह पर्याय है अर्थात् प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षरण परिवर्तन चालू है । वहाँ पूर्वाकार का परित्याग होता है और उत्तराकार का ग्रहरण । इसी लिए आचार्यों ने द्रव्य की परिभाषा इस प्रकार भी की है— उत्पादव्ययधीव्ययुक्तंसत् — उत्पाद, व्यय और धौव्य गुणस्वभाव से युक्त पदार्थ हैं । यहाँ उत्पाद और व्यय द्रव्य के पर्या रूप हैं और धौव्य गुण रूप | पंचास्तिकाय सार में द्रव्य की उक्त दोनों ही व्याख्यायें की हैं । जिस प्रकार सोने के गहने को तोड़कर नये नये आकार के गहनों के निर्माण होने में स्वर्णत्व सब में अवस्थित रहता है । वहाँ स्वर्णत्व ध्रौव्य है और पूर्वाकारों का विनाश व उत्तराकारों का आदान क्रमशः व्यय और उत्पाद हैं ।
दृश्यमान सृष्टि के उपादान परमाणु हैं । उन परमाणुओं के ही यौगिक परिणाम से समस्त पदार्थ समूह निष्पन्न हुआ है । उस पदार्थ समूह में बनना और बिगड़ना
१. ( क ) गुण पर्यायाश्रयो द्रव्यम् । (ख) गुरणारण मासवो दव्वं ।
- उत्तराध्ययन अध्ययन २६-६ ।
२. सहभावी धर्मो गुणः । - श्री जैन सिद्धान्त दीपिका प्रकाश १ सूत्र ४० ॥
३. पूर्वोत्तराकार परित्यगादानं पर्यायः
- श्री जैन सिद्धान्त दीपिका प्रकाश १ सूत्र ४४ ॥
४. श्री तत्त्वार्थ सूत्र ०५ : २६ ।
५. द्रव्यं सल्लक्षरण के उत्पादव्ययध्रुवत्वसंयुक्तम् । गुण पर्यायाश्रयं वा यत्तद् भांति
सर्वज्ञाः ।
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