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________________ परमाणुवाद परामरण की गति सम्बन्धी अन्य मर्यादायें परमाणु की गति के विषय में और भी कुछ नियमोनियम हैं । परमाणु की स्वाभाविक गति सरल रेखा में होती है । गति में वत्रता तभी आती है जब अन्य पुद्गल का उसमें सहकार होता । परमाणु की गति में जीव प्रत्यक्ष कारण नहीं हो सकता क्योंकि वह अत्यन्त सूक्ष्म है । जीव तो केवल छोटे बड़े स्कन्धों को ही प्रभावित कर सकता है । जिस प्रकार परमाणु की उत्कृष्ट गति (Maximumn Speed) बताई गई है उसी प्रकार उसकी अल्पतम गति का निर्देश भी शास्त्रों में मिलता है । कम से कम गति करता हुआ परमाणु एक समय में प्रकाश के एक प्रदेश से अपने निकटवर्ती दूसरे प्रदेश में जा सकता है । श्राकाश का एक प्रदेश उतना ही छोटा है जितना कि एक परमाणु । परमाणु की गति स्वत: भी होती है तथा अन्य पुद्गलों की प्रेरणा से भी । निष्क्रिय परमाणु कब गति करेगा यह अनिश्चित है । लेकिन असंख्यात समय के पश्चात् अवश्य वह गति या क्रिया प्रारम्भ करेगा । सक्रिय परमाणु कब गति और क्रिया बन्द करेगा यह अनियत है । एकं समय से लेकर ग्रावलिका के असंख्यात भाग समय में किसी समय भी वह गति व क्रिया बन्द कर सकता है । किन्तु प्रावलिका के असंख्यात भाग उपरान्त वह निश्चित ही गति व क्रिया प्रारम्भ करेगा । ३७ परमाणु-पुद्गल अप्रतिघाती है । वह मोटी से मोटी लोह- दीवार को अपने सहज भाव से पार कर जाता है । पर्वत उसे नहीं रोकते । वह वज्र के भी इस पार से उस पार निकल जाता है । कभी कभी वह प्रतिहत होता है तो इस स्थिति में कि विसा ( स्वाभाविक ) परिणाम से सवेग गति करते हुए परमाणु पुद्गल का यदि किसी दूसरे विस्रसा परिणाम से सवेग गति करते हुए परमाणु पुद्गल से आयतन संयोग हो ऐसी स्थिति में वह स्वयं भी प्रतिहत हो सकता है तथा अपने प्रतिपक्षी परमाणु को भी प्रतिहत कर सकता है । 1 परमाणों का सूक्ष्म परिरणाभावगाहन परमाणु की सबसे विलक्षण शक्ति तो यह है जिस प्रकाश प्रदेश को एक परमाणु ने भर रक्खा है उसी प्रकाश प्रदेश में दूसरा परमाणु स्वतन्त्रतापूर्वक रह सकता है और उसी एक श्राकाश प्रदेश में अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी ठहर जाता है | यह परमाणुओं की सूक्ष्म परिणामावगाहन शक्ति का वैचित्र्य है । सर्वार्थसिद्धि के १. ४८ मिनट परिमाण मुहूर्त के १६७७७२९६ वें भाग को प्रावलिका कहा जाता है । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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