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________________ ३६ जैन दर्शन और प्राधुनिक विज्ञान प्रश्न उठता है परमाणु में गति स्वतः होती है या.जीव द्वारा प्रेरित ? परमाणु में जीव निमित्त कोई क्रिया और गति नहीं हो सकती क्योंकि परमाणु जीव द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता तथा पुद्गल को ग्रहण किये बिना पुद्गल में परिणमन कराने की जीव में शक्ति नहीं है। .. परमारण की उत्कृष्ट गति परमाणु अपनी उत्कृष्ट गति से एक समय में चतुर्दश रज्ज्वात्मक लोक के पूर्व चरमान्त से पश्चिम चरमान्त, उत्तर चरमान्त से दक्षिण चरमान्त व अधोचरमान्त से उर्ध्व चरमान्त तक पहुँच सकता है । इस गति को हमें शास्त्रीय शब्दों को खोलकर समझना होगा। समय एक जैन परिभाषिक शब्द है । परमाणु की तरह वह काल का अन्तिम टुकड़ा है । स्थूल रूप से हम उसे इस प्रकार समझ सकते हैं कि हमारी आँखों के पलक के एक बार उठने या गिरने मात्र में असख्य समय व्यतीत हो जाते हैं। वैसे एक समय में परमाणु ब्रह्माण्ड के अधोचरमात से उर्ध्व चरमान्त तक चला जाता है । ब्रह्मांड शब्द से ही यह जाना जा सकता है कि परमाणु की वह गति कितनी तीव्र जैन शास्त्रों के अनुसार यह समग्र विश्व ऊपर से नीचे तक चतुर्दश रज्ज्वास्मक २ है । एक रज्जु कितना विशाल होता है इसका उल्लेख कुछ उत्तरवर्ती ग्रन्थों में मिलता है। कोई देव हजार मन के लोह गोलक को हाथ में उठाकर अनन्त आकाश में छोड़ दे। वह लोह गोलक छ: महीने तक गिरता जाये इस अवधि में जितने प्राकाश देश का अवगाहन करता है, वह एक रज्जु है । ऐसे चौदह रज्जु प्रों का समस्त ब्रह्मांड है । अतः एक समय में इस छोर से उस छोर तक पहुंचने वाला परमाणु कितनी तीव्र गदि करता है ? १. परमाणु पोग्गलेणं भन्ते ! लोगस्स पुरच्छि मिल्लाप्रो चरिमंतानो पच्चच्छि मिल्ल चरिमंतं एग समऐणं गच्छइ, पच्चच्छि मिल्लाप्रो चरिमंतानो पुरच्छि मिल्लं चरिमंतं एग समयेणं गच्छइ, दाहिरिगल्लानो चरिमंतानो उत्तरिल्लं जाव गच्छइ, उत्तरिल्लाप्रो दाहिरिगल्लं जावगच्छइ, उवरिल्लामो चरिमंतानो हेठिल्लं चरिमंतं एग समएणं जाव गच्छइ, हेठिल्लायो चरिमंतानो उवरिल्लं चरिमंतं एग समयेणं गच्छइ ? हन्तागोयमा ! परमाणु पोग्गलेणं, लोगस्स पुरच्छि चैव जाव उवरिल्ल चरिमंतं गच्छइ । -~-भगवती सूत्र शतक १६ उद्देश ८॥ २. चतुर्दश रज्ज्वात्मको लोकः -श्री जैन सिद्धान्त दीपिका। Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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