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________________ परमाणुवाद आधा भाग है या वह इस पुस्तक का एक पृष्ठ है तो वह उस स्कन्ध रूप दण्ड या पुस्तक का एक देश कहलाता है । तात्पर्य यह हुआ कि जिसे हम देश कहेंगे वह स्कन्ध से पृथग्भूत नहीं होगा। पृथग्भूत होने से तो वह स्वयं एक स्कन्ध की संज्ञा ले लेगा। स्कन्ध-प्रदेश-जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु (स्कन्ध) की मूल इंट परमाणु है । यह परमाणु जब तक स्कन्धगत है तब तक वह स्कन्ध-प्रदेश कहलाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं वस्तु का वह अविभागी अंश जो सूक्ष्मतम है और जिसका फिर अंश नहीं बन पाता वह स्कन्ध-प्रदेश' है। __ परमारण ---स्कन्ध का वह अन्तिम भाग जो विभाजित हो ही नहीं सकता वह परमाणु है। जब तक वह स्कन्धगत है प्रदेश कहलाता है और अपनी पृथग् अवस्था में परमाणु कहलाता है । परमाणु के स्वरूप को शास्त्रकारों ने विभिन्न प्रकार से स्पष्ट किया है । 'परमाणु पद्गल अविभाज्य, अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य, व अग्राह्य है किसी भी उपाय, उपचार या उपाधि से उसका भाग नहीं हो सकता । वज्रपटल से भी उसका भाग या विभाग नहीं हो सकता। किसी तीक्ष्णातितीक्ष्ण शस्त्र से उसका क्रमण या भाग नहीं हो सकता। वह तलवार की या इससे भी तीक्ष्ण धार वाले शस्त्र की धार पर रह सकता है । तलवार या क्षुर की तीक्ष्ण धार पर रहे हुए परमाणु-पुद्गल का छेदन भेदन नहीं हो सकता। वह अग्नि प्रवेश कर जलता नहीं, पुष्कर संर्वत महामेध में प्रवेश कर आर्द्र नहीं होता, गंगा महानदी के प्रति श्रोत में शीघ्रता से प्रवेश कर नष्ट नहीं होता। "उदकावर्त या उदक बिन्दु में आश्रय लेकर विलुप्त नहीं होता।" "परमाणु पुद्गल अनर्घ है, अमध्य है, अप्रदेशी है, सार्ध नहीं है, समध्य नहीं है, सप्रदेशी नहीं है।" परमाणु के न लम्बाई है, न चौड़ाई है, न गहराई है। यदि वह है तो इकाई रूप है। "वह सूक्ष्मता के कारण स्वयं ही आदि, स्वयं ही मध्य और स्वयं ही अन्त५ है।" इसीलिए प्राचार्यों ने कहा है-जिसका आदि, अन्त, मध्य, एक ही है अर्थात् वह स्वयं ही आदि है, स्वयं ही मध्य है, और स्वयं १. निरंशों देशः प्रदेशः कथ्यते श्री जैन सिद्धान्त दीपिका-प्रकाश १ सूत्र २३ । २. अविभाज्यः परमाणु:-श्री जैन सिद्धान्त दीपिका-प्रकाश १ सूत्र १४ । ३. भगवती शतक ५ उद्देश ७ । ४. परमाणु पोग्गलेणं भन्ते किं सअड्ढे, समझ, सपऐसे उदाहु-अणड्ढे, अमझे अपऐसे ? गोयमा ! अणड्ढे, अमझे, अपऐसे, नोसअड्ढे, नो समझे नो सपऐसे भगवती शतक ५ उद्देश ७ ।। ५. सौक्षम्पाद्यः आत्ममध्याः आत्मांताश्च-राज वात्तिक ५।२५।१ । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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