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स्याबाय और सापेक्षवाद स्याद्वाद के विषय में उसकी जटिलता के कारण ऐसे विवेचनों की बहुलता यत्र तत्र दीख पड़ती है । इस जटिलता को भी प्राचार्यों ने कहीं कहीं इतना सहज बना दिया है कि जिससे सर्वसाधारण भी स्याद्वाद के हृदय तक पहुँच सकते हैं । जब आचार्यों के सामने यह प्रश्न आया कि एक ही वस्तु में उत्पत्ति, विनाश, और ध्र वता' जैसे परस्पर विरोधी धर्म कैसे ठहर सकते हैं तो स्याद्वादी प्राचार्यों ने कहा"एक स्वर्णकार स्वर्ण-कलश तोड़कर स्वर्ण-मुकुट बना रहा था, उसके पास तीन ग्राहक आये । एक को स्वर्ण-घट चाहिये था, दूसरे को स्वर्ण-मुकुट और तीसरे को केवल सोना । स्वर्णकार की प्रवृत्ति को देखकर पहले को दुःख हुआ कि यह स्वर्ण कलश को तोड़ रहा है । दूसरे को हर्ष हुआ कि यह मुकुट तैयार कर रहा है । तीसरा व्यक्ति मध्यस्थ भावना में रहा क्योंकि उसे तो सोने से काम था । तात्पर्य यह हुआ एक ही स्वर्ग में उसी समय एक विनाश देख रहा है, एक उत्पत्ति देख रहा है और एक ध्र वता देख रहा है । इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से त्रिगुणात्मक है।"३ प्राचार्यों ने और अधिक सरल करते हुए कहा-"वही गोरस दूध रूप से नष्ट हुमा, दधि रूप में उत्पन्न हुअा, गोरस रूप में स्थिर रहा । जो पयोव्रती है वह दधि को नहीं खाता, दधिव्रती पय नहीं पीता और गोरस त्यागी दोनों को नहीं खाता, पीता।" ये विरुद्ध धर्मों की सकारण स्थितियाँ हैं । इसलिये वस्तु में नाना अपेक्षाओं से नाना विरोधी धर्म रहते ही हैं। इसी प्रकार जब कभी राह चलते आदमी ने भी पूछ लिया कि आपका स्याद्वाद क्या है तो प्राचार्यों ने कनिष्ठा व अनामिका सामने करते हुए पूछा-दोनों में बड़ी कौनसी है ? उत्तर मिला-अनामिका बड़ी है । कनिष्ठा को समेटकर और मध्यमा को फैलाकर पूछा--दोनों अंगुलियों में छोटी कौनसी है ?
१ उत्पाद् व्यय ध्रौव्य यक्तं सत-श्री भिक्षु न्याय करिणका । २. घटमौलि सुवर्णार्थी नाशोत्पाद स्थितिष्वयम् । शोक प्रमोद माध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ।।
-----शास्त्र वार्ता समुच्चय । ३. उत्पन्न दधिभावेन नष्टं दुग्धतया पयः।
गोरसत्वात् स्थिरं जानन् स्याद्वाद दिड जनोऽपि कः ।।१।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः ।
अगोरसवतो नोभे, तस्माद वस्तु त्रयात्मकम् ।।२।। ४. यथा अनामिकायाः कनिष्ठा मधिकृत्य दीर्घत्वं, मध्यमा मधिकृत्य हृस्वत्वम् ।
-प्रज्ञासूत्र वृत्तिः पद भाषा ११ ॥
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