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________________ जैन दर्शन और माधुनिक विज्ञान नाम साम्य स्याद् और वाद दो शब्द मिलकर स्याद्वाद की संघटना हुई है । स्यात् कचित् का पर्यायवाची संस्कृत भाषा का एक अव्यय है। इसका अर्थ है 'किसी प्रकार से' 'किसी अपेक्षा से' । वस्तु तत्त्व निर्णय में जो वाद अपेक्षा की प्रधानता पर प्राधारित है वह स्याद्वाद है । यह इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति है। सापेक्षवाद Theory of Relativity का हिन्दी अनुवाद है । वैसे यदि हम इसका अक्षरशः अनुवाद करते हैं तो वह होता है 'अपेक्षा का सिद्धान्त' पर विश्व की रूपरेखा, विज्ञान हस्तामलक प्रभृति हिन्दी ग्रन्थों में इसे सापेक्षतावाद या सापेक्षवाद ही कहा गया है । तत्त्वतः, सापेक्षवाद का भी वही शाब्दिक अर्थ है जो स्याद्वाद का। 'अपेक्षया सहितं सापेक्षं' अर्थात् अपेक्षा करके सहित जो है वह सापेक्ष है । अतः वह अपेक्षा सहित वाद सापेक्षवाद है । इस प्रकार यदि स्याद्वाद को सापेक्षवाद व सापेक्षवाद को स्याद्वाद कहा जाय तो शाब्दिक दष्टि से कोई आपत्ति नहीं उठती । यही तो कारण है कि हिन्दी लेखकों ने जैसे थियोरी ऑफ रिलेटिविटी का अनुवाद सापेक्षवाद (स्याद्वाद) किया वैसे ही सर राधाकृष्णन् प्रभृति अंग्रेजी लेखकों ने अपने ग्रन्थों में स्याद्वाद का अनुवाद Theory of Relativity' किया। इस प्रकार दो विभिन्न क्षेत्रों से प्रारम्भ हुए दो सिद्धान्तों का तथा प्रकार का नाम-साम्य एक महान् कुतूहल तथा जिज्ञासा का विषय है। सहज भी, कठिन भी दोनों ही सिद्धान्त अपने अपने क्षेत्र में सहज भी माने गये हैं और कठिन भी। स्याद्वाद को ही लें-इसकी जटिलता विश्व-प्रसिद्ध है । जहाँ जैनेतर दिग्गज विद्वानों ने इसकी समालोचना के लिए कलम उठाई वहाँ उनकी समालोचनायें स्वयं बोल पड़ी हैं-उन्होंने स्याद्वाद को समझा ही नहीं है । प्रयाग विश्वविद्यालय के उपकुलपति महामहोपाध्याय डॉ० गंगानाथ झा एम० ए०, डीलिट ०, एल० एल० डी० लिखते हैं"जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा किया गया जैन सिद्धान्त का खण्डन पढ़ा है तब से मुझे । विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है, जिसे वेदान्त के प्राचार्यों ने नहीं समझा है । और जो कुछ अब तक मैं जैन धर्म को जान सका हूँ उससे मुझे यह दढ़ विश्वास हुआ है कि यदि वे (शंकराचार्य) जैन धर्म को उसके असली ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैन धर्म का विरोध करने को कोई बात नहीं मिलती "२ १. इण्डियन फिलॉसफी, पृष्ठ ३०५ । २. जैन-दर्शन, १६ सितम्बर १९३४ । Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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