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स्याद्वाद और सापेक्षवाद
स्याद्वाद भारतीय दर्शनों की एक संयोजक कड़ी और जैन दर्शन का हृदय है । इसके बीज आज से सहस्रों वर्ष पूर्व संभाषित जैन आगमों में उत्पाद्, व्यय, ध्रौव्य; स्यादस्ति स्यान्नास्ति ; द्रव्य, गुरण, पर्याय; सप्त-नय आदि विविध रूपों में बिखरे पड़े हैं । सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि जैन- दार्शनिकों ने सप्त भंगी आदि के रूप में तार्किक पद्धति से स्याद्वाद को एक व्यवस्थित रूप दिया । तदनन्तर अनेकों आचार्यों ने इस पर अगाध वाङ्गमय रचा जो आज भी उसके गौरव का परिचय देता है । विगत १५०० वर्षों में स्याद्वाद दार्शनिक जगत् का एक सजीव पहलू रहा और आज भी है ।
सापेक्षवाद वैज्ञानिक जगत में बीसवीं सदी की एक महान् देन समझा जाता है । इसके प्राविष्कर्ता सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो० अलबर्ट आइंस्टीन हैं जो पाश्चात्य देशों में सर्वसम्मति से संसार के सबसे अधिक दिमागी पुरुष माने गये हैं । सन् १९०५ में आईंस्टीन ने 'सीमित सापेक्षता' शीर्षक एक निबन्ध लिखा जो 'भौतिक शास्त्र का वर्ष पत्र' (Year book) नामक जर्मनी पत्रिका में प्रकाशित हुआ । इस निबन्ध ने वैज्ञानिक जगत में जीब हलचल मचा दी थी । सन् १६१६ के बाद उन्होंने अपने सिद्धान्त को व्यापक रूप दिया जिसका नाम था - " - 'असीम सापेक्षता ।' सन् १९२१ में उन्हें इसी खोज के उपलक्ष में भौतिक विज्ञान का 'नोबेल' पुरस्कार मिला । सचमुच ही आईंस्टीन का अपेक्षावाद विज्ञान के शान्त समुद्र में एक ज्वार था । उसने विज्ञान की बहुत सी बद्धमूल धारणाओं पर प्रहार कर एक नया मानदण्ड स्थापित किया । अपेक्षावाद के मान्यता में आते ही न्यूटन के काल से धाक जमाकर बैठे हुए गुरुत्वाकर्षरण (Law of Gravitation) का सिंहासन डोल उठा । ' ईयर' (Ether) नामशेष होने से बाल बाल ही बच पाया व देश-काल की धारणाओं ने भी एक नया रूप ग्रहण किया । अस्तु बहुत सारे विरोधों के पश्चात् अपनी गणित सिद्धता के कारण आज वह पेक्षावाद निर्विवादतया एक नया आविष्कार मान लिया गया है । इस प्रकार दार्शनिक क्षेत्र में समुद्भूत स्याद्वाद और वैज्ञानिक जगत् में नवोदित सापेक्षवाद का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत निबन्ध का विषय है ।
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