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________________ १३४ जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान अभौतिक (अपारमाणविक), लोक व्याप्त, नहीं देखा जा सकने वाला एक अखण्ड द्रव्य है। ईथर सम्बन्धी गवेषणात्रों का इतिहास और आज के ईथर की रूप-रेखा समझने के लिए वैज्ञानिकों के कुछ प्रमाणभूत उद्धरणों से पर्याप्त मौलिक सामग्री मिलेगी। श्री डेम्पायर 'ए सोर्ट हिस्ट्री ऑफ साइन्स' पुस्तक के पृष्ठ १११ पर लिखते हैं—“यूनानियों की ईथर सम्वन्धी धारणा का विभिन्न विचारकों ने भिन्न-भिन्न रूपों में प्रयोग किया। कपेलर ने उसकी सहायता से यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि सर्य किस प्रकार ग्रहों को चलायमान रखता है। अपनी भंवरों (वार्टीसेज) के निर्माण के लिए डे कार्ट ने द्रव्य को ईथर माना। गिलबर्ट ने विद्युत् और चुम्बकत्व सम्बन्धी सिद्धान्तों के प्रतिपादन में ईथर की सहायता ली और हार्वे का विश्वास था कि ईथर की सहायता से ही सूर्य प्राणियों और रक्त तक ताप पहुँचा पाता है।" आगे पृष्ठ १६४ पर वे लिखते हैं-'तरंगों के संवाहन के लिए एक माध्यम (Medium) की आवश्यकता अनुभव की गई और उसके लिए ईथर की कल्पना की गई । तरंगों के अनुप्रस्थ (ट्रेन्सवर्स) के लिए ईथर का दृढ़ता के गुण से सम्पन्न होना आवश्यक था। दढ़तायुक्त ठोस के रूप में ईथर की कल्पना को सत्य सिद्ध करने के लिए बहुत से सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया । परन्तु उन सब सिद्धान्तों को इस कठिनाई का सामना करना पड़ा, यदि ईथर दृढ़ और ठोस है तो ग्रह बिना किसी बाधा के आकाश में कैसे घूमते रहते हैं ? परन्तु जब मैक्सवेल ने सिद्ध कर दिया कि प्रकाश की तरंगें विद्युत् चुम्बक-परक हैं तब ईथर के ठोस और दृढ़ होने की कल्पना जाती रही।" _ 'एन प्राउट लाइन फार बोयज़ एण्ड गर्ल्स एण्ड देयर पेरेन्ट्स' पुस्तक में श्री नोमिमिरसन लिखते हैं-"यदि प्रकाश की तरंगे वास्तविक हैं तो पहली समस्या यह थी कि ये तरंगें किसी पदार्थ विशेष में होनी चाहिएँ । स्पष्टतया ये तरंगें भौतिक पदार्थों में नहीं थी, इसलिए अन्य द्रव्य जो कि भौतिक नहीं और जिसमें तरंगे हो सकें, उसका अन्वेषण करना आवश्यक था। इस अन्य द्रव्य को उन्होंने ईथर कहा और अनुमान किया-वह पतला और लचीला है, जो भौतिक लोक के अंशों के बीच में अबाध गति से चल सकता है और हर प्रकार के रिक्त स्थानों को भर सकता है।" 1. The first problem was, of course, that if light-waves were real waves, they must be waves in something. They were plainly not waves in matter; it was necessary therefore to invent something else, which was not matter, for them to be waves in. This Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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