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धर्म-द्रव्य श्रौर ईथर
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यद्यपि इन वृत्तों के व्यास लगातार बढ़ रहे हैं तो भी उनके व्यासों की एक दूसरे के साथ न्यूनाधिकता एक सी रहती है, क्योंकि उनके अग्रसर होने की एक सी गति है । अब नाव खोली जाती है, पतवारों को वैसे ही पड़ा छोड़कर मल्लाह उसे लग्गी से चलाता है । बूंदें अब भी गिर रही है । किन्तु एक जगह नहीं, इसलिए वृत्त एक केन्द्र वाले नहीं हैं और उलझाये छल्लों की भाँति आगे बढ़ रहे हैं । वैज्ञानिक कह रहे थे, पतवार की स्थिति गिरी हुई बूंदों के वृत्तों की गति पर जिस प्रकार कोई प्रभाव नहीं रखती, उसी तरह प्रकाश का उद्गम (ग्राकाशीय पिण्ड या सूर्य ) प्रकाश की गति पर कोई प्रभाव नहीं डालता । छूटने वाली प्रकाश-किरण उसी एक सैकिण्ड में १८६००० मील की गति से चलती रहेगी । फिर प्रश्न था बूँदों के वृत्तों की चाल को जिस प्रकार जल अपनी घनता के कारण रुकावट डालकर कम करता जाता है, क्या उसी तरह ईथर प्रकाश किरणों की गति में रुकावट नहीं डालेगा ? किन्तु वेध बतलाता था, प्रकाश - गति दूर या समीप १८६००० मील प्रति सैकिण्ड रहती है । यह नहीं होता कि कुछ लाख मीलों से आने वाला प्रकाश ज्यादा द्रुतगामी हो और करोड़ों अरबों खरबों व नीलों प्रकाश वर्षों से ग्राने वाला मन्दगामी । यह क्यों ? इसका
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उत्तर वे केवल यही दे सकते थे कि ईथर की घनता इतनी कम है कि प्रकाश गति पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । यह उसके लिए शून्य-सा है और उसमें तैरने वाले आकाशीय पिण्डों की गति उसकी विद्यमानता से नहीं घटती बढ़ती । ईथर भौतिक वस्तु भी हो, उसमें घनता, तरंग प्रवाहिता भी हो, किन्तु वह किरणों व प्रकाशीय पिण्डों की गति पर असर न डाले, यह बात युक्तिसंगत नहीं थी तो भी वैज्ञानिक माध्यम को ढूंढ़ने में इतने आतुर थे कि वे ईथर को छोड़ नहीं सकते थे । जहाँ-जहाँ माध्यम की अनिवार्यता प्राई वहाँ-वहाँ उन्होंने खास गुणों वाले ईथर की कल्पना की । यहाँ तक कि शरीर के एक भाग की सूचना दूसरे भाग तक कैसे पहुँचती है इसलिए भी उन्होंने विशेष ईथर की कल्पना की । दूसरे शब्दों में समस्याओं का बुद्धि के साथ समाधान करने वाले ईथरों की संख्या भी सैंकड़ों पर पहुँच गई । इतने पर भी ईथर उन्नीसवीं शताब्दी के विज्ञान की सबसे बड़ी देन समझा जाता है ।
इस समय तक का ईथर जैन दर्शन में प्रतिपादित धर्म-द्रव्य के साथ एक गति माध्यम के रूप से ही समानता रखता था । अन्य दृष्टियों से दोनों भौतिक श्रीर अभौतिक भेदों को लेकर सर्वथा पृथक् थे । धर्म-द्रव्य एक अपौद्गलिक ( अभौतिक) माध्यम माना गया था । जिसमें वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श अर्थात् तरलता, घनता, लचीलापन, ठोसपन आदि की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी और ईथर सर्वथा इसके विपरीत । इस बीसवीं शताब्दी की गवेषणाओं ने ईयर का कायापलट कर दिया । आइंसटीन का अपेक्षावाद ईथर की अन्तिम व्याख्या करता है । उसके अनुसार ईथर
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