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धर्म-द्रव्य और ईथर में से एक भी गति-माध्यम का प्रतीक नहीं हो सकता। इसलिए धर्म-द्रव्य की स्वतन्त्र कल्पना अत्यन्त स्वाभाविक और बुद्धिगम्य है।
धर्मास्तिकाय जन्य सहाय का स्वरूप धर्म-द्रव्य किस प्रकार से जीव और पुद्गल को गतिक्रिया में सहायता प्रदान करता है, यह बताते हुए पंचास्तिकायसार में श्री कुन्दकुन्दाचार्य लिखते हैं"धर्मास्तिकाय न स्वयं चलती है और न किसी को चलाती है । वह तो केवल गतिशील जीव व प गल की गति का प्रसाधन है। मछलियों के लिए जल जैसे गति में अनुग्रहशील है, उसी प्रकार जीवपुद्गलों के लिये धर्म द्रव्य है।"
सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री नेमिचन्द्रसूरि लिखते हैं
"धर्भ-द्रव्य गति परिणत जीव व पुद्गल के लिए मछलियों के लिये जल की तरह गमन-सहकारी है। स्थिर पदार्थों को वह चलने के लिए प्रेरित नहीं करता।" .
- अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं--"धर्म-द्रव्य क्रियापरिणत व क्रियाशील पदार्थों को स्वयमेव सहायता प्रदान करता है। जीव और पुद्गल के कर्तव्य गति-उपग्रह में वह साधारण प्राश्रय है, जैसे मत्स्य के गमन में जल ।"
आज की व्यवहार्य सामग्री में यदि हम धर्म-द्रव्य के सहाय को समझना चाहें तो रेल और पटरी का उदाहरण समुचित होगा। रेल के लिए पटरी की सहायता जिस प्रकार अनिवार्यतः अपेक्षित है, उसी तरह गतिशील जीव व पुद्गल की
१. न च गच्छति धर्मास्तिको, गमनं न करोत्यन्य द्रव्यस्य ।
भवति गतेः प्रसरो, जीवानां पुद्गलानां च ॥६५॥ उदकं यथा मत्स्यानां, गमनानुग्रहकरं भवति लोके । तथा जीवपुद्गलानां, धर्म-द्रव्यं विजानीहि ॥ १२ ॥
___–पञ्चास्तिकाय । २. गति परिणतानां धर्मः पुद्गलजीवानां गमन सहकारी । तोयं यथा मत्स्यानामगच्छतां नैव स नयति ॥
-द्रव्य-संग्रह–संस्कृत छाया । ३. क्रिया परिणतानां यः, स्वयमेव क्रियावताम् ।
प्रादधाति सहायत्वं, स धर्मः परिगीयते ॥ ३३ ॥ जीवानां पुद्गलानां च, कर्तव्ये गत्युपग्रहे । जलवन्मत्स्यगमने, धर्मः साधारणाश्रयः ।। ३४ ॥
-तत्त्वार्थसार, अध्याय ७ ॥
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