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जैन दर्शन और प्राधुनिक विज्ञान तथा स्थिति नहीं हो सकती। वायु आदि अन्य पदार्थों को गति तथा स्थिति का सहायक मानने से अनवस्था प्रादि दोष उत्पन्न होते हैं । अतः इनका अस्तित्व नि:सन्देह सिद्ध है । अलोक में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दोनों ही नहीं हैं । इसलिए वहाँ पर जीव और पुद्गल नहीं जा सकते और नहीं रह सकते ।"
पन्नवणावत्ति में प्राचार्य मलयगिरि और लोक-प्रकाश में विनय विजय गणी धर्म-द्रव्य की सार्थकता बतलाते हुए लिखते हैं-"धर्म-द्रव्य' के अभाव में लोक प्रलोक की व्यवस्था ही नहीं बनती।"
प्रमेय कमल मार्तण्ड में श्री प्रभाचन्द्र सूरि धर्म-द्रव्य की सूक्ष्म विश्लेषणा करते हुए लिखते हैं-'सब जीव और पौद्गलिक पदार्थों की गतियाँ एक साधारण बाह्य निमित्त की अपेक्षा रखती हैं, क्योंकि ये सब जीव और पौद्गलिक पदार्थ युगपत् गतिमान् दिखलाई देते हैं। तालाब के अनेक मत्स्यों की युगपत् गति देखकर जिस प्रकार उक्त गति के साधारण निमित्त रूप एक सरोवर में रहे हुए पानी का अनुमान होता है।"
यौक्तिक अपेक्षा धर्मास्तिकाय की कोई निराधार कल्पना नहीं है। इस पिषय को जैन दार्शनिकों ने पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है, आकाश अनन्त है, विश्व एक देशवर्ती है, यह जैन दर्शन की मान्यता है । विश्व एक देशवर्ती है, ऐसा क्यों ? यह इसलिए कि विश्व में ऐसा कोई तत्त्व है, जिसका गुण गतिक्रिया में योगभूत होना है और वह लोक परिमित है। यदि ऐसा न होता तो विश्व का एक एक परमाणु अनन्त आकाश में छितर जाता और विश्व का कोई संगठन ही नहीं बनता। यही धर्म-द्रव्य की यौक्तिक अपेक्षा है।
एक अन्य अपेक्षा-प्रात्मा और अणु दो गतिशील पदार्थ हैं। अपनी गति का उपादान कारण तो वे स्वयं हैं पर निमित्त कारण को खोजना पड़ता है । पृथ्वी, जल आदि लोक व्यापी नहीं है । गति लोक मात्र में देखी जाती है । वाय आदि स्वयं गतिशील है। आकाश लोक और अलोक में सर्वत्र व्याप्त है, पर जीव व पुद्गल की गति सर्वत्र प्रतीत नहीं होती । काल गति निरपेक्ष है और लोक देश में है । निर्धारित द्रव्यों
१. लोकालोक व्यवस्थाऽनुपपत्तेः ।
-प्रज्ञापना वृत्ति, पद १ । २. विवादापन्नसकलजीवपुद्गलाश्रया सकृद्गतयः ।
साधारण बाह्य निमित्तापेक्षा युगपद् भाविगतिमत्वादेकसरःसलिलाश्रयाने कमत्स्यगतिवत् । -प्रमेय-कमल-मार्तण्ड ।
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