________________
१२६
धर्म-द्रव्य और ईथर रस-स्पर्श रहित अरूपी, अजीर, शाश्वत, अवस्थित, लोक व्याप्त द्रव्य ' है।"
"जीवों का आगमन, गमन, बोलना, उन्मेष, मानसिक, वाचिक, कायिक व अन्य प्रवृत्तियाँ भी धर्मास्तिकाय से होती हैं।"
“धर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेश हैं । वे सर्व सम्पूर्ण, प्रति पूर्ण, निरवशेष एक शब्द सूचित हैं।"
धर्म-द्रव्य असंख्य प्रदेशात्मक है। अतः प्रदेश किसे कहते हैं यह समझ लेना भी आवश्यक होगा। वस्तु का अविभक्त सूक्ष्मतम अंश प्रदेश कहलाता है अर्थात अखण्ड धर्म-द्रव्य का एक परमाणु जितना अंश एक प्रदेश कहलाता है। उन समस्त प्रदेशों की एक वाच्यता धर्मास्तिकाय है।
धर्म-द्रव्य क्यों ? __ भगवान् श्री महावीर के उत्तरवर्ती जैन मनोषियों ने धर्म-द्रव्य की दार्शनिक पद्धति से उपयोगिता सिद्ध करते हुए बहुमुखी विवेचन किया है। श्री जैन सिद्धान्त दीपिका में प्राचार्य श्री तुलसी लिखते हैं__ "धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय' के बिना जीव और पुद्गल की गति १. धम्मत्थिकाएणं भन्ते कति वण्णे कति रसे कति फासे ?
गोयमा ! अवणे अगन्धे अरसे अफासे अरूवी अजीवे सासए अवठ्ठिए लोक दव्वे।
-भगवती शतक २, उद्देशक १० । २. धम्मत्थिकारणं जीवाणं आगमण गमण भासुम्मेस मण जोगा
वयजोगा कायजोगा जे यावन्ने तहप्पगारा चला भावा सव्वे ते ... धम्मत्थिकाए पवत्तति ।
-भ० श० १३, उद्देशक ४ । ३. असंखेज्जा धम्मत्थिकाए पएसा, ते सव्वे कसिणा पडिपुण्णा निरवसेसा एगगहणगहिया. एस णं धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्वंसिया ।
--व्याख्या-प्रज्ञप्ति श० २, उद्देशक १० । ४. बुद्धिकल्पितो वस्त्वंशो देशः, निरंशः प्रदेशः ।।
-जैन-सिद्धान्त दीपिका, १-२२-२३ । ५. जीवपुद्गलानां गतिस्थित्यन्यथानुपपत्तेः, वाय्वादीनां सहायकत्वेऽन
वस्थादिदोषप्रसंगाच्च धर्माधर्मयोः सत्त्वं प्रतिपत्तव्यम् । एतयोरभावादेव प्रलोके जीवपुद्गलादीनामभावः ।।
-जैन सि० दी०, १-१५ । ६. जैन-दर्शन में गति-सहायक धर्म-द्रव्य की तरह स्थिति-सहायक अधर्मद्रव्य माना गया है। दोनों में अन्तर केवल इतना है कि वह गति का और यह स्थिति का सहायक है।
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org