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धर्म-द्रव्य और ईथर
आत्मा और अणु की गतिक्रिया का विश्लेषण करते हुए जैन मनीषियों ने एक उदासीन माध्यम के रूप में धर्म-द्रव्य का निरूपण किया । सहस्राब्दियों पश्चात् और आज से लगभग २०० वर्ष पूर्व गति सिद्धान्त को समझते हुए वैज्ञानिकों ने ईथर द्रव्य की कल्पना की । धर्म और ईथर दोनों द्रव्य गति - सापेक्ष होते हुए भी अपनी स्वरूप व्याख्या में एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न थे । प्रगतिशील नवीन विज्ञान का ईथर श्राज दर्शनपरम्परा के धर्म-द्रव्य में किस प्रकार समाहित होता जा रहा है, यही प्रस्तुत निबन्ध का विषय है । जैन श्रागमों में धर्म-द्रव्य को धर्मास्तिकाय भी कहा गया है ।
धर्म-द्रव्य
विश्वस्थिति पर प्रकाश डालते हुए भगवान् महावीर ने बताया - लोकधर्मं, अधर्म, आकाश काल, पुद्गल, जीवषड्-द्रव्य ' रूप है । द्रव्य क्या है ? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा - "गुणों का प्राश्रय द्रव्य २ है ।" इससे स्पष्ट हो जाता है, यहाँ न तो धर्म शब्द "आत्मशुद्धि का साधन धर्म है” और न वह कर्त्तव्य व गुण के अर्थ में । यहाँ वह विश्वस्थिति के एक मौलिक द्रव्य का सूचक पारिभाषिक शब्द है । भगवान महावीर के शब्दों में धर्म-द्रव्य का विराट् रूप यह है – “धर्म - द्रव्य एक * है । . वह लोक व्याप्त है । यह शाश्वत है । वर्ण- शून्य है. गन्ध शून्य है, रसशून्य है, स्पर्शशून्य है । वह जीव और अणु की गतिक्रिया में सहायक है ।" "धर्मास्तिकाय वर्ण - गन्ध
१. धम्मो, अधम्मो, आगासं, कालो पुग्गलजन्तवो ।
एस लोगोत्ति पन्नत्तो, जिरणेहिं वरदंसिहि ।। उत्तराध्ययन २८-७ । २. गुरणारणमासो दव्वं ।
- उत्तराध्ययन २८ ६ ।
— जैन सिद्धान्त दीपिका ७ ५३ । खेत्तस्रो- लोगप्पमारणमेत्ते, कयायि नत्थि, जाव णिच्चे, अफासे, गुरणप्रो, गमरणगुणे | - व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक २, उद्देशक १०
३. आत्मशुद्धिसाधनं धर्मः ।
४. दव्वोरगं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे, कालओ न कयायि न आसि, न भावप्रो - श्रवण्णे, अगन्धे, अरसे,
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