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________________ ११४ जैन दर्शन और प्राधुनिक विज्ञान की उपज पर आधारित है । वह वायु मण्डल भी है और अनुकल और प्रतिकूल गमन करने वाले पदार्थों पर कुछ भी प्रभाव न डाले यह कैसे सम्भव है ? क्योंकि प्रत्यक्ष देखा जाता है पक्षी, वायुयान, तीर व पिस्तौल की गोली जितनी पूर्व की ओर गति करती है उतनी ही पश्चिम की अोर । एक ओर यह मान लेना कि पथ्वी का वायुमण्डल अपने आप में इतना समर्थ है कि न उससे बाहर का पदार्थ पृथ्वी पर आ सकता है और न सामान्य उपक्रम से कोई भी पदार्थ उसे छोड़कर कहीं जा सकता है। दूसरी ओर पृथ्वीवासी प्राणियों की अनुकूल और प्रतिकूल गति में सक्ष्मातिसूक्ष्म प्रयोगों में भी वह पकड़ा न । जा सके कसे सम्भव है ? वैज्ञानिकों के कथनानुसार ऐसा मान भी लिया जाये कि पृथ्वी पर ऐसा वायुमण्डल है ही तो भी प्रश्न समाधान नहीं पाते । मक्खी रेल के डिब्बे में दो गतियाँ कर सकती है, क्योंकि डिब्बा लगभन चारों ओर से प्रावृत्त है । वह एक वायु-पुञ्ज को अपने में निश्चल कर और बाहर के वायु-पज को चीरता हुया चला जा रहा है । पर पृथ्वी की ऐसी स्थिति नहीं है । वह प्रकृति के मुक्त वातावरण में घूमती है । इस पर कोई छत या पास-पास की दीवारें नहीं है। ऐसी स्थिति में वायुयान या पक्षी प्रति घण्टा एक हजार व ६६००० मील की दैनिक व वार्षिक भ्रमण की गति में पृथ्वी का साथ नहीं दे सकते। यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है, जब हम देखते हैं कि रेल के डिब्बे की मक्खी उसके साथ नैसर्गिक गति करती है। पर वही यदि डिब्बे की छत से दो चार फुट ऊँची या उस डिब्बे के दायें-बायें उड़ती है तो वहाँ उसकी नैसर्गिक गति काम नहीं करती। चन्द सैकिण्डों में गाड़ी आगे निकल जाती है और मक्खी पीछे रह जाती है । इस प्रकार डिब्बे में रहा व्यक्ति यदि गेंद को पाँच फुट ऊपर फेंककर उसी स्थान पर अपने हाथ में उसे लेना चाहे तो उसे ले सकता है किन्तु यही प्रयोग यदि वह चलते हुए डिब्बे की खुली छत पर बैठकर करे तो लगता है वह गेंद को पुनः नहीं पा सकेगा । और यदि वह अपने पिंजरे में रहे हए तोते को वहाँ से खुले आकाश में उड़ने के लिये छोड़े दे ; यह सोचकर कि वह गाड़ी के वायुमण्डल में उड़ता हुआ सदा की भाँति पुनः इस पिंजरे में प्रा बैठेगा तो सचमच ही वह अपने तोते से हाथ धो लेगा। सारांश यह रहा कि पृथ्वी का डिब्बे के उदाहरण से कोई समर्थन नहीं होता। यदि पृथ्वी घूमती हो तो मुक्त आकाश में घण्टों तक उड़ने वाले पक्षी और वायुयान गायब ही हो जाते । __सृष्टि का स्वाभाविक नियम तो यही लगता है कि जो यान तीव्र गति से चलते है, उन पर बैठने वाले हवा का एक प्रतिकुल दबाव अनुभव करते हैं । जिस पृथ्वी पर हम सब बैठे हैं और वह अनन्न अाकाश में एक वायुयान की तरह स्वयं उड़ रही है तो हम वैसा अनुभव क्यों नहीं करते ? श्रीपति का यह तर्क निराधार ही नहीं है Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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