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________________ सापेक्षवाद के अनुसार भू-भ्रमण केवल सुविधावाद ११५ 'भूगल वेग जनितेन समीरणेन प्रासाद भूधर शिरांस्यपि संपतेयुः' अर्थात् हमारा पृथ्वी का खुला वायुयान यदि तथाकथित प्रचण्ड गति से दौड़ रहा होता तो उसकी इस खुली छत पर वायु का इतना भीषण प्राघात लगता कि पृथ्वी पर रही बड़ी-बड़ी अट्टालिकायें, पर्वतों के शिखर प्रौर स्फुट वस्तुओं के साथ हम कहीं के कहीं आकाश में उड़ गिरते । साथ-ही-साथ यदि हमें स्थिर रखने वाला कोई गुरुत्वाकर्षण होता तो भी उस वायु के प्राधात-प्रतिघातों का व उस गुरुत्वाकर्षण के खिंचावों का अनुभव तो होता ही। सापेक्षवाद के नये प्रकाश में विज्ञान एक वह नदी है जिसमें सतत एक के बाद एक नई लहर उठती रहती है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में सापेक्षवाद का उदय हुआ और वैज्ञानिक जगत् के बहुत सारे अभिमत अपेक्षा के एक नये मानदण्ड से परखे गये । न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण जो अाधुनिक भूगोल शास्त्र की बहुत सारी कठिनाइयों को दूर करने वाला था, सापेक्षवाद की कसौटी पर खरा नहीं उतरा। सूर्य और पृथ्वी की भ्रमणशीलता में जो 'ही' और 'भी' का मतवाद चलता था अर्थात् सूर्य ही चलता है या पृथ्त्री भी चलती है। प्राईस्टीन ने एक नया दृष्टिकोण उपस्थित किया । उसने बताया "गति व स्थिति केवल सापेक्ष धर्म है।" प्रकृति ऐसी है कि किसी भी ग्रह पिण्ड की वास्तविक गति किसी भी प्रयोग द्वारा निश्चित रूप से नहीं बताई जा सकती।" सूर्य की अपेक्षा में पथ्वी चलती है या पृथ्वी की अपेक्षा में सूर्य चलता है इस विषय में सापेक्षवाद का स्पष्ट मन्तव्य है कि “सौर जगत् (Solar system) के ग्रहों का सापेक्ष भ्रमण पुराने तरीके से भी समझाया जा सकता है और कोपरनिकस के सिद्धान्त से भी। दोनों ही ठीक हैं और गति का ठीक-ठीक वर्णन देते हैं । किन्तु कोपरनिकस का मत सरलतम है। एक स्थिर पृथ्वी के चारों ओर सूर्य और चन्द्रमा प्रायः गोल कक्षा पर भ्रमण करते हैं, परन्तु सूर्य के नक्षत्रों और उपग्रहों के पथ जटिल, गुंघरीली रेखाएँ हैं जो मस्तिष्क के लिये श्रमग्राह्य हैं और गणना में जिसका हिसाब बड़ी अड़चन पैदा करता है जब कि एक स्थिर सूर्य के चारों ओर महत्त्वपूर्ण पथ प्रायः वृत्ताकार है।" 1. Rest and motion are merely relative. -Mysterious Universe. 2 Nature is such that it is impossible to determine absolute motion by any experiment whatever. - Mysterious Universe, p. 78. 3. The relative motion of the members of the solar system may be explained' on the older geocentric mode and on the other introduced by Copernicus. Both are legitimate Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002599
Book TitleJain Darshan aur Adhunik Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1959
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size7 MB
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