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जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान
देखे जाते हैं, यही पृथ्वी के चलने में अविनाभावी लक्षण है; यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि यह प्रमाण बाधित बात है । इससे तो यह सिद्ध हुआ कि कोई कहे कि उष्ण होने से अग्नि द्रव्य है पर उसे यह भी मानना होगा कि शीत होने से जलादि भी द्रव्य है | अतः फलित यह हुआ कि उष्णता की तरह शीतलता भी द्रव्यत्व सिद्धि का हेतु हो सकती है । इसी प्रकार ज्योतिषचक्र के घूमने और पृथ्वी के स्थिर होने से भी उदय, अस्त आदि की प्रतीति हो सकती है १ ।”
पाश्चात्य जगत् की नवीन खोजों से पूर्व भारतवर्ष के भू स्थिरवादियों का एक छत्र साम्राज्य रहा । भू- भ्रमरणवादी भू - भ्रमण के सम्बन्ध में आने वाले तर्कों के समाधान में असफल रहे और इसीलिये भू-भ्रमण का सिद्धान्त इस देश में पनप नहीं पाया । भू-स्थिरवादियों के सामने उस समय जो तर्क थे वे उनका समुचित समाधान देते थे । पश्चिमी जगत्
पाश्चात्य देशों में भी जहाँ तक बाइबिल आदि धर्म ग्रन्थों का प्रश्न है, उनमें भी कट्टरता से पृथ्वी को स्थिर ही स्वीकार किया गया है । बहुत सारे ज्योतिषी और गणिताचार्य भी इसी अभिमत की पुष्टि करते रहे, जिनमें अरस्तू और टालमी के नाम उल्लेखनीय हैं । १६वीं शताब्दी में सर्वप्रथम कोपरनिकस (Copernicus) ने पृथ्वी को चर बताया और सूर्य को स्थिर । ज्योतिर्मण्डल को सर्वप्रथम दूरवीक्षक यन्त्र से देखने वाले गेलेलिओ ने इस अभिमत की विभिन्न प्रमाणों से पुष्टि की। पश्चिमी जगत् में उसकी यह श्रावाज़ दूर-दूर तक पहुँची भी थी, परन्तु पोप लोगों ने इस सिद्धान्त को धर्म विरुद्ध व बाइबिल का अपमान बताया । परिणाम ' स्वरूप गेलेलो को बहुत-सी राजकीय यातनाएँ भोगनी पड़ीं; पर यह सिद्धान्त रुका नहीं । पृथ्वी को चर मान लेने से जो-जो प्रश्न पैदा हो रहे थे, क्रमशः उन सब का समाधान प्रस्तुत किया जाने लगा । पृथ्वी की दैनिक व वार्षिक गति २३३° डिग्री झुकी हुई होना, इसके चारों ओर एक सतत वायुमण्डल की परिकल्पना और
१. नहि प्रत्यक्षतो भूमे मरणनिर्णीतिरस्ति, स्थिरतयैवानुभवात् । नचायं भ्रान्तः सकलदेशपुरुषाणां तद् भ्रमरणाप्रतीतेः । कस्यचिन्नवादि स्थिरत्वानुभवस्तु भ्रान्तः परेषां तद्भवानुभवेन बाधनात् । नाप्यनुमानतो भूभ्रमरण विनिश्चयः कर्तुं सशकः तदविनाभाविलिंगाभावात् । स्थिरे भचक्रे सूर्योदयास्तमयमध्याह्लादि भूगोल भ्रमणे, अविनाभावि लिंग मितिचेन्न, तस्य प्रमाणबाधितविषयत्वात् पावकानौष्ण्यादिषु द्रव्यत्वादिवत् । भचक्र भ्रमणे सति भूभ्रमणमन्तरेणापि सूर्योदयादि प्रतीत्युपपत्तेश्च । — तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिका अध्याय ४।
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